।। श्रीहरिः ।।

              





आजकी शुभ तिथि–
  भाद्रपद कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७८, बुधवार              
          प्रेमकी जागृतिमें ही

मानव-जीवनकी पूर्णता



कभी सद्‌ग्रन्थ, सद्विचार, सत्संगके द्वारा अथवा कोई आफत आनेपर भगवत्कृपासे मनुष्यकी दृष्टि असत्‌से हटकर उसके प्रकाशक सत्‌की ओर चली जाती है, वह असत्‌से विमुख होकर उसके आधार सत्‌के सम्मुख हो जाता है, तब उसकी रूचि असत्‌से हटकर सत्‌-तत्त्वमें हो जाती है, असत्‌की कामना न रहकर सत्‌की जिज्ञासा हो जाती है अर्थात्‌ आवश्यकता और कामनाका भेद स्पष्ट हो जाता है[*] । भेद स्पष्ट होनेपर आवश्यकताकी पूर्ति और कामनाकी निवृत्ति हो जाती है अर्थात्‌ असत्‌से माना हुआ सम्बन्ध नहीं रहता । असत्‌का सम्बन्ध मिटनेपर मनुष्यको शान्तरसका अनुभव हो जाता है । शान्तिको सत्‌ मानकर उसका भोग न करनेसे उसको अखण्डरसका अनुभव होता है और अखण्डरसमें सन्तोष न करनेपर उसको अनन्तरसका अनुभव हो जाता है ।

असत्‌ (जड़ता)-से सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर शान्तरसका अनुभव होता है और सत्‌ (चिन्मयता)-में स्थिति होनेपर अखण्डरसका अनुभव होता है । कर्मयोगमें शान्तरसका और ज्ञानयोगमें अखण्डरसका अनुभव होता है । कर्मयोग और ज्ञानयोग‒दोनोंका परिणाम एक ही है[†] अर्थात्‌ दोनोंके परिणाममें अपने चिन्मय स्वरूपमें स्थिति (मोक्ष)-का अनुभव होता है । मोक्षकी प्राप्ति होनेपर मुमुक्षा अथवा जिज्ञासा तो नहीं रहती, पर प्रेम-पिपासा रह जाती है । इसलिये जब मुक्त पुरुषको अखण्डरसमें भी सन्तोष नहीं होता, तब उसको भगवान्‌ अपनी अहैतुकी कृपासे अनन्तरस प्रदान करते हैं । अनन्तरसको ‘प्रेम’ कहते हैं । मुमुक्षा अथवा जिज्ञासाकी तो पूर्ति होती है, पर इस प्रेमकी पूर्ति नहीं होती । जैसे धनकी प्राप्ति होनेपर भी उसका लोभ बढ़ता रहता है; ऐसे ही प्रेमकी प्राप्ति अर्थात्‌ जागृति होनेपर भी यह प्रेम प्रतिक्षण बढ़ता ही रहता है । इसलिये प्रेमको प्रतिक्षण वर्धमान कहा गया है‒‘प्रतिक्षणवर्धमानम्’ (नारदभक्ति ५४)

मोक्ष (अखण्डरस) प्राप्त होनेपर ‘मैं मुक्त हूँ अथवा मैं योगी हूँ या मैं ज्ञानी हूँ’‒इस प्रकार अहम्‌की एक सूक्ष्म गन्ध रहती है । अहम्‌की यह सूक्ष्म गन्ध मुक्तिमें तो बाधक नहीं होती, पर प्रेम (अनन्तरस)-की जागृतिमें बाधक होती है । इस सूक्ष्म अहम्‌के कारण ही दार्शनिकोंमें परस्पर मतभेद रहता है । प्रेम जाग्रत्‌ होनेपर फिर मतभेद नहीं रहता । अतः प्रेमकी जागृतिमें ही पूर्णता है ।


[*] आवश्यकता और कामना‒दोनोंमें भेद हैं । आवश्यकता उसकी होती है, जो अविनाशी, चेतन और अपनेसे अभिन्न हो एवं कामना उसकी होती है, जो नाशवान्‌, जड़ और अपनेसे भिन्न हो । तात्पर्य है कि आवश्यकता नित्य-तत्त्व (सत्‌)-की होती है और कामना अनित्य-तत्त्व (असत्‌)-की होती है । इसलिये भगवद्दर्शन, भगवत्प्रेम, स्वरूपबोध, मोक्ष आदिकी इच्छा कामना नहीं है, प्रत्युत आवश्यकता है । यह नियम है कि आवश्यकताकी तो पूर्ति ही होती है, पर कामनाकी निवृत्ति ही होती है । कामनाकी पूर्ति होना असम्भव है ।

जब जीव अपने अंशी परमात्मासे विमुख होकर होकर संसार (जड़ता)-के साथ अपना सम्बन्ध (मैं-मेरापन) मान लेता है, तभी उसमें आवश्यकता और कामना‒दोनोंकी उत्पत्ति होती है । चेतनकी मुख्यतासे आवश्यकता और जड़की मुख्यतासे कामना होती है । संसारसे माने हुए सम्बन्धका सर्वथा त्याग होनेपर आवश्यकताकी पूर्ति हो जाती है और कामनाकी निवृत्ति हो जाती है ।

[†] साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।

   एकमप्यास्थितः    सम्यगुभयोर्विन्दते     फलम् ॥

  यत्साङ्ख्यैः  प्राप्यते  स्थानं तद्योगैरपि  गम्यते ।

  एकं साङ्ख्यं च योगं च  यः पश्यति स पश्यति ॥

(गीता ५/४-५)