।। श्रीहरिः ।।

             





आजकी शुभ तिथि–
  भाद्रपद कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७८, मंगलवार              
          प्रेमकी जागृतिमें ही

मानव-जीवनकी पूर्णता



गीतामें आया है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (२/१६) अर्थात्‌ असत्‌ (वस्तु, व्यक्ति, क्रिया)-की तो सत्ता विद्यमान नहीं है और सत्‌ (परमात्मतत्त्व)-का अभाव विद्यमान नहीं है । तात्पर्य है कि असत्‌का भाव-ही-भाव है, सिवाय भावके कुछ नहीं । इस विवेकको महत्त्व न देकर जब मनुष्य शरीर (असत्‌)-को ही अपना स्वरूप मान लेता है अर्थात्‌ शरीरमें ‘मैं’ और ‘मेरा’ कर लेता है, तब उसमें अभावकी उत्पत्ति हो जाती है । कारण कि अभावरूप असत्‌के सम्बन्धसे अभाव ही पैदा होता है । अभाव उत्पन्न होनेपर मनुष्य अभावके दुःखसे दुःखी हो जाता है । अभावके दुःखसे दुःखी होनेपर उसमें उस दुःखकी निवृत्तिके लिये कामना पैदा होती है । कामना पैदा होनेपर फिर अभाव बढ़ता ही जाता है, जिससे वह स्वाधीन नहीं रहता, प्रत्युत पराधीन हो जाता है । कारण कि एक कामना पूरी होनेपर दूसरी कामना पैदा हो जाती है और यह क्रम चलता ही रहता है । सम्पूर्ण कामनाएँ कभी किसीकी भी पूरी नहीं होतीं ।

परमात्मतत्त्व सत्‌-चित्-आनन्दमय है । परन्तु प्रेमके आदान-प्रदानके लिये मिली हुई स्वाधीनताका दुरुपयोग करके जब मनुष्य असत्‌के साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब उसमें सत्‌, चित् और आनन्दकी आवश्यकता (जिज्ञासा) उत्पन्न हो जाती है, जिसकी पूर्तिके लिये वह असत्‌की कामना करता है । मैं सदा जीता रहूँ, कभी मरूँ नहीं‒यह ‘सत्‌’ की आवश्यकता है । मैं सब कुछ जान लूँ, कभी अज्ञानी न रहूँ‒यह ‘चित्’ की आवश्यकता है । मैं सदा सुखी रहूँ, कभी दुःखी न रहूँ‒यह ‘आनन्द’ की आवश्यकता है । परन्तु असत्‌के साथ सम्बन्ध माननेके कारण मनुष्यसे भूल यह होती है कि वह सत्‌-चित्-आनन्दकी आवश्यकताको असत्‌के द्वारा ही पूरी करना चाहता है; जैसे‒वह शरीरके द्वारा जीना चाहता है, बुद्धिके द्वारा ज्ञानी बनना चाहता है और इन्द्रियाँ‒अन्तःकरणके द्वारा सुखी होना चाहता है । इस प्रकार उसमें आवश्यकता तो सत्‌-तत्त्वकी रहती है, पर उसकी पूर्तिके लिये कामना असत्‌की करता है‒यही उसकी मूल भूल है । असत्‌की कामना करनेसे न तो आवश्यकताकी पूर्ति होती है और न कामनाका नाश होता है । अतः मनुष्य सत्‌-तत्वसे विमुख हो जाता है और असत्‌को ही सत्य मानकर, उसको ही महत्ता देकर उसमें आसक्त हो जाता है । वह असत्‌को ही अपने जीवनका लक्ष्य मान लेता है । परिणाम यह होता है कि वह पराधीन, दुःखी, क्लान्त, पराजित, अभावग्रस्त और अनाथ हो जाता है । इतना ही नहीं, असत्‌की आसक्ति दृढ़ होनेपर वह पराधीनतामें ही स्वाधीनता, दुःखमें ही सुख, क्लान्ति (थकावट)-में ही विश्राम, पराजयमें ही विजय, अभावमें भाव और अनाथपनेमें ही सनाथपना मान बैठता है और मनुष्यतासे पशुताकी ओर चला जाता है !

मनुष्य कितना ही पतित क्यों न हो जाय, उसमें सत्‌-चित्-आनन्दकी जिज्ञासा दब तो सकती है, पर मिट नहीं सकती । उसकी वास्तविक आवश्यकता कभी नष्ट नहीं होती । जैसे मनुष्य थोड़ी भी दरिद्रताको नहीं चाहता, ऐसे ही वह अपने नाशको, अपने अनजानपनेको और अपने दुःखको थोड़ा भी नहीं चाहता ।