।। श्रीहरिः ।।

            





आजकी शुभ तिथि–
   भाद्रपद कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७८, सोमवार               
 भक्तिकी विलक्षणता



‘स्व’ के दो अर्थ होते हैं‒स्वयं और स्वकीय । अपने स्वरूपका नाम भी ‘स्व’ है और जो अपना है, उसका नाम भी ‘स्व’ है । परमात्मा अपने होनेसे स्वकीय हैं । स्वकीयकी अधीनतामें विशेष स्वाधीनता और निश्चिन्तता है । जैसे, बालक माँके पराधीन नहीं होता; क्योंकि माँ ‘पर’ नहीं है, प्रत्युत अपनी होनेसे स्वकीय है । बालकके लिये अपनी अधीनताकी अपेक्षा माँकी अधीनता ज्यादा श्रेष्ठ है; क्योंकि माँकी अधीनतामें बालकका जितना हित है, उतना अपनी अधीनता (स्वाधीनता)-में नहीं है । माँकी अधीनतामें अपनेपर कोई जिम्मेवारी न होनेसे बालक निश्चिन्त रहता है । माँ उसका खयाल रखती है, उतना वह अपना खयाल नहीं रख सकता । इसलिये रामायणमें भगवान्‌ कहते हैं‒

सुनु  मुनि  तोहि    कहउँ   सहरोसा ।

भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा ॥

करउँ   सदा     तिन्ह  कै   रखवारी ।

जिमि  बालक    राखइ    महतारी ॥

(मानस, अरण्य४३/२)

सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासू ।

बड़   रखवार   रमापति   जासू ॥

(मानस, बाल१२६/४)

जीव परमात्माका अंश है‒‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७); ‘ईश्वर अंस जीव अबिनासी’ (मानस, उत्तर ११७/१) । परमात्माका अंश होनेसे हम परमात्माके हैं और परमात्मा हमारे हैं; अतः उनकी अधीनता पराधीनता नहीं है । जो इस तत्त्वमें गहरा नहीं उतरा है, उसीको ऐसा दीखता है कि भक्तिमें पराधीनता है । वास्तवमें उसने ईश्वरको ‘पर’ मानकर अन्य सत्ताको स्वीकार कर लिया ! ‘पर’ वही होता है, जो बदलता है, पर परमात्मा नहीं बदलते । उस परमात्माके अधीन होना असली स्वाधीनता है । हमारी एकता परमात्माके साथ है और शरीरकी एकता संसारके साथ है । अतः हम और परमत्मा एक हैं, शरीर और संसार एक हैं । हम और परमात्मा अविनाशी हैं, शरीर और संसार नाशवान्‌ हैं । नाशवान्‌के सम्बन्धसे पराधीनता होती है और अविनाशीके सम्बन्धसे स्वाधीनता होती है ।

मीराबाईने कहा है‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई’ । इसी तरह हमारे भी भगवान्‌ ही हैं, दूसर कोई हमारा नहीं है । यह अपना कहलानेवाला शरीर भी हमारा नहीं है, प्रत्युत पराया है । शरीर-संसारके साथ हमारा नित्य-निरन्तर वियोग है और परमात्माके साथ हमारा नित्य-निरन्तर योग है । इसलिये संसारके साथ हमारा सम्बन्ध रह ही नहीं सकता और परमात्मासे हमारा सम्बन्ध कभी छूट ही नहीं सकता ।

कर्मयोगी तथा ज्ञानयोगी अकेले होते हैं और भक्त भगवान्‌के साथ होता है । शरीर, पदार्थ, क्रिया आदि बदलनेवाली वस्तुओंके साथ अपना सम्बन्ध न मानना, उनसे असंग होना ‘अकेला’ होना है । कर्मयोगी त्यागसे (संसारकी वस्तु संसारमें लगाकर) असंग होता है । मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌ मेरे हैं’‒इस प्रकार भगवान्‌के साथ रहना भक्तियोग है । कर्मयोगी एवं ज्ञानयोगी संसारसे असंग होते हैं, पर भक्त भगवान्‌से प्रेम करता है । असंगताकी अपेक्षा प्रेम विलक्षण है । प्रेममें जो आनन्द है, वह असंगता (मुक्ति)-में नहीं है । कर्मयोगी तथा ज्ञानयोगी तो स्वयं अपना उद्धार करते हैं‒‘उद्धरेदात्मनात्मानम्’ (गीता ६/५); ‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः’ (गीता १२/४); परन्तु भक्तका उद्धार भगवान्‌ करते हैं‒‘तेषामहं समुद्धर्ता’ (गीता १२/७) । अतः सभी साधनोंमें भक्ति विलक्षण है !

भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी

(मानस, उत्तर ४५/३)

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘अमरताकी ओर’ पुस्तकसे