।। श्रीहरिः ।।

           





आजकी शुभ तिथि–
    श्रावण पूणिमा, वि.सं.-२०७८, रविवार               
 भक्तिकी विलक्षणता



संसारकी वस्तु संसारकी सेवामें लगा दें तो कर्मयोग हो जायगा, स्वयं संसारसे अलग हो जायँ तो ज्ञानयोग हो जायगा और भगवान्‌में स्वयं लग जायँ तो भक्तियोग हो जायगा । कर्मयोगमें अनित्य संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेसे ‘नित्य सम्बन्ध’ होता है अर्थात्‌ नित्य परमात्मतत्त्वके साथ सम्बन्धका अनुभव हो जाता है । ज्ञानयोगमें स्वरूपमें स्थिति होनेसे ‘तात्त्विक सम्बन्ध’ होता है अर्थात्‌ ब्रह्मके साथ सधर्मता (अभेद)-का अनुभव हो जाता है‒‘मम साधर्म्यमागताः’ (गीता १४/२) भक्तियोगमें अपने-आपको भगवान्‌के समर्पित करनेसे ‘आत्मीय सम्बन्ध’ होता है अर्थात्‌ भगवान्‌के साथ आत्मीयता (अभिन्नता)-का अनुभव हो जाता है‒‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ (गीता ७/१८)

संसारके सम्बन्धसे ही अशान्ति, हलचल होती है । अतः संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर शान्ति हो जाती है‒‘त्यागच्छान्तिरनन्तरम्’ (गीता १२/१२) । स्वरूपमें स्थिति होनेपर तत्त्वबोध हो जाता है । भगवान्‌के शरणागत होनेपर प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम प्राप्त हो जाता है । साधक चाहे तो संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके शान्त (नित्य) आनन्द ले ले, चाहे स्वरूपमें स्थित होकर अखण्ड आनन्द ले ले, चाहे भगवान्‌से सम्बन्ध जोड़कर अनन्त आनन्द ले ले, यह उसकी मरजी है । साधक किसी भी योगका अवलम्बन ले ले, पर संसारका अवलम्बन कभी न ले । योगका अवलम्बन मुक्त करनेवाला है, पर संसारका अवलम्बन जन्म-मरण देनेवाला, पतन करनेवाला है ।

लेनेका भाव जड़ता है और देनेका भाव चेतनता है । जो केवल लेता-ही-लेता है, वह ‘जड़’ (जगत्‌) है । अगर वह पशु, पक्षी, पहाड़ आदि हो तो भी जड़ है और मनुष्य हो तो भी वह जड़ है । जो लेता भी है और देता भी है, वह ‘जीव’ (चिज्जड़ग्रन्थि) है । जो लेना बन्द करके देना शुरू कर देता है, वह ‘साधक’ है । जो किसीसे कुछ नहीं लेता, न जगत्‌से लेता है, न भगवान्‌से, वह ‘सिद्ध’ है । जो केवल देता-ही-देता है, वह ‘भगवान्‌’ है । भगवान्‌ और उनके भक्त‒दोनों देते-ही-देते हैं. लेते हैं ही नहीं‒

हेतु रहित जग जुग उपकारी ।

तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥

(मानस, उत्तर ४७/३)

लेनेकी इच्छा उसमें होती है, जिसमें अभाव है और अभाव जड़में ही होता है, चेतनमें नहीं । लेनेकी इच्छाका सर्वथा त्याग करनेपर कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनों योग सिद्ध हो जाते हैं । वास्तवमें मुक्तितक कुछ भी लेनेकी इच्छा जड़ता हैं इसलिये भक्त मुक्ति भी नहीं चाहते‒

राम भजत सोई मुकुति गोसाईं ।

अनइच्छित   आवइ    बरिआईं ॥

(मानस, उत्तर ११९/२)

अगर कोई कहे कि ईश्वरकी भक्तिमें पराधीनता है, स्वाधीनता तो मुक्तिमें ही है तो उनका कहना ठीक है; परन्तु वास्तवमें भक्तिमें ही असली स्वाधीनता है ।