संसारकी वस्तु संसारकी सेवामें लगा दें तो
कर्मयोग हो जायगा, स्वयं संसारसे अलग हो जायँ तो ज्ञानयोग हो जायगा और भगवान्में
स्वयं लग जायँ तो भक्तियोग हो जायगा । कर्मयोगमें अनित्य संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेसे ‘नित्य सम्बन्ध’ होता है
अर्थात् नित्य परमात्मतत्त्वके साथ सम्बन्धका अनुभव हो जाता है । ज्ञानयोगमें
स्वरूपमें स्थिति होनेसे ‘तात्त्विक सम्बन्ध’ होता है अर्थात् ब्रह्मके साथ
सधर्मता (अभेद)-का अनुभव हो जाता है‒‘मम साधर्म्यमागताः’
(गीता १४/२) भक्तियोगमें अपने-आपको भगवान्के समर्पित करनेसे ‘आत्मीय
सम्बन्ध’ होता है अर्थात् भगवान्के साथ आत्मीयता (अभिन्नता)-का अनुभव हो जाता है‒‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ (गीता ७/१८) । संसारके सम्बन्धसे ही अशान्ति, हलचल होती है । अतः संसारसे
सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर शान्ति हो जाती है‒‘त्यागच्छान्तिरनन्तरम्’
(गीता १२/१२) । स्वरूपमें स्थिति होनेपर तत्त्वबोध हो जाता है । भगवान्के
शरणागत होनेपर प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम प्राप्त हो जाता है । साधक चाहे तो संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके शान्त (नित्य)
आनन्द ले ले, चाहे स्वरूपमें स्थित होकर अखण्ड आनन्द ले ले, चाहे भगवान्से
सम्बन्ध जोड़कर अनन्त आनन्द ले ले, यह उसकी मरजी है । साधक किसी भी योगका अवलम्बन
ले ले, पर संसारका अवलम्बन कभी न ले । योगका अवलम्बन मुक्त करनेवाला है, पर
संसारका अवलम्बन जन्म-मरण देनेवाला, पतन करनेवाला है । लेनेका
भाव जड़ता है और देनेका भाव चेतनता है । जो केवल
लेता-ही-लेता है, वह ‘जड़’ (जगत्) है । अगर वह पशु, पक्षी, पहाड़ आदि हो तो भी जड़
है और मनुष्य हो तो भी वह जड़ है । जो लेता भी है और देता भी है, वह ‘जीव’
(चिज्जड़ग्रन्थि) है । जो लेना बन्द करके देना शुरू कर देता है, वह ‘साधक’ है । जो
किसीसे कुछ नहीं लेता, न जगत्से लेता है, न भगवान्से, वह ‘सिद्ध’ है । जो केवल
देता-ही-देता है, वह ‘भगवान्’ है । भगवान् और उनके भक्त‒दोनों देते-ही-देते हैं.
लेते हैं ही नहीं‒ हेतु रहित जग जुग उपकारी । तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥ (मानस, उत्तर॰ ४७/३) लेनेकी इच्छा उसमें होती है, जिसमें अभाव है और अभाव जड़में ही होता है,
चेतनमें नहीं । लेनेकी इच्छाका सर्वथा त्याग करनेपर
कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनों योग सिद्ध हो जाते हैं । वास्तवमें मुक्तितक कुछ भी लेनेकी
इच्छा जड़ता हैं इसलिये भक्त मुक्ति भी नहीं चाहते‒ राम भजत सोई मुकुति गोसाईं । अनइच्छित आवइ बरिआईं ॥ (मानस, उत्तर॰ ११९/२)
अगर कोई कहे कि ईश्वरकी भक्तिमें पराधीनता है, स्वाधीनता तो
मुक्तिमें ही है तो उनका कहना ठीक है; परन्तु वास्तवमें
भक्तिमें ही असली स्वाधीनता है । |