भगवान्ने गीतामें कर्मयोग और ज्ञानयोगका भी वर्णन किया है
और उन दोनोंको समकक्ष बताया है‒‘एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते
फलम्’ (५/४) अर्थात् दोनोंमेंसे किसी एक भी साधनमें स्थित मनुष्य दोनोंके
फलरूप परमात्मतत्त्वको पा लेता है । तात्पर्य है कि साधक किसी भी एक साधनमें
तत्परतापूर्वक लग जाय तो उसकी साधना सिद्ध हो जायगी । वास्तवमें
एक परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य होनेपर कोई भी साधन छोटा-बड़ा नहीं होता । परन्तु
जिनका भोग भोगने और संग्रह करनेका उद्देश्य है, वे कोई भी साधन नहीं कर सकते हैं;
न कर्मयोग कर सकते हैं, न ज्ञानयोग कर सकते हैं, न ध्यानयोग कर सकते हैं, न
भक्तियोग कर सकते हैं । नाशवान् पदार्थोंमें लगे होनेसे
उनका भोग और संग्रह तो नष्ट हो जाता है, पर भोग और संग्रहमें उनका जो राग है, वह
नष्ट नहीं होता, प्रत्युत बार-बार जन्म-मरण देता रहता है । कारण कि पदार्थोंमें
राग ही जीवको ऊँच-नीच योनियोंमें ले जानेका कारण है‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३/२१) । इस रागके मिटनेपर ही मुक्ति होती है । इस रागके
मिटानेके लिये कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, भक्तियोग आदि साधन हैं । साधकको अपनी रूचि, श्रद्धा-विश्वास और योग्यताके अनुसार कोई एक
साधन करके इस रागको मिटा देना चाहिये । शास्त्रमें इस रागको अज्ञानका चिह्न बताया गया है‒ रागो लिंगमबोधस्य
चित्तव्यायामभूमिषु । कुतः शाद्वलता तस्य यस्याग्निः कोटरे तरोः ॥ तात्पर्य है कि क्रिया, पदार्थ और व्यक्तिमें जो मनका खिंचाव,
प्रियता है, यह अज्ञानका खास चिह्न है । जैसे किसी वृक्षके कोटरमें आग लग गयी हो तो वह वृक्ष
हरा-भरा नहीं रहता, सूख जाता है, ऐसे ही जिसके भीतर
राग-रूपी आग लगी हो, उसको शान्ति नहीं मिल सकती, उसका उत्थान नहीं हो सकता ।
सांसारिक पदार्थ, मान, बड़ाई, प्रशंसा, आराम, सत्कार आदिका प्रिय लगना पतनका कारण
है । भोगोंकी प्रियता जन्म-मरण देनेवाली है और परमात्माकी प्रियता कल्याण करनेवाली
है । अपरा और परा‒दोनों प्रकृतियों परमात्माकी हैं; अतः इनको
परमात्माके ही भेंट कर दें, अपनी न मानें । न स्थूलशरीरको अपना मानें, न सूक्ष्मशरीरको
अपना मानें और न कारणशरीरको अपना मानें ।
स्वयं भी परमात्माका अंश होनेसे अपना नहीं है । अतः
स्वयंको भी परमात्माके भेंट (समर्पित) कर दें । कर्मयोग और ज्ञानयोग‒ये दोनों लौकिक निष्ठाएँ हैं[*]। परन्तु भक्तियोग अलौकिक निष्ठा अर्थात् प्राणीकी निष्ठा नहीं है । जो भगवान्में लग जाता है, वह भगवन्निष्ठ होता है, उसकी निष्ठा अलौकिक होती है । उसके साध्य भी भगवान् होते हैं और साधन भी । इसलिये भक्तियोग साधन भी है और साध्य भी, तभी कहा है‒‘भक्त्या सञ्जातया भक्त्या’ (श्रीमद्भा॰ ११/३/३१) अर्थात् भक्तिसे भक्ति पैदा होती है । श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य, आत्मनिवेदन‒यह नौ प्रकारकी साधन भक्ति है और इससे आगे प्रेमलक्षणा भक्ति साध्य भक्ति है । वह प्रेमलक्षणा भक्ति कर्मयोग और ज्ञानयोग सबकी साध्य है । यह साध्यभक्ति ही सर्वोपरि प्रापणीय तत्त्व है और उसीको हमें प्राप्त करना है । [*] लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ । ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥ (गीता ३/३) |