गीतामें भगवान्ने अपनी दो प्रकृतियोंका वर्णन किया है‒अपरा
और परा । पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार‒यह आठ भेदोंवाली ‘अपरा’ प्रकृति है;
और जिसने जगत्को धारण कर रखा है,
वह जीवात्मा ‘परा’ प्रकृति है (७/४-५) । भगवान् इन दोनों प्रकृतियोंके
मालिक हैं । अपरा प्रकृति भौतिक तत्त्व है और परा प्रकृति आध्यात्मिक तत्त्व है । इन
दोनोंको लेकर साधना भी दो तरहकी है‒भौतिक साधना अर्थात् कर्मयोग और आध्यात्मिक साधना
अर्थात् ज्ञानयोग । परन्तु जो अपरा और परा प्रकृतिके मालिक
हैं, उन भगवान्को लेकर जो साधना है, वह
आस्तिक साधना अर्थात् भक्तियोग है । अपरा प्रकृतिको ‘क्षर’, परा प्रकृतिको ‘अक्षर’ और दोनोंके मालिक भगवान्को ‘पुरुषोत्तम’
नामसे भी कहा गया है (गीता ५/१६-१८) । कर्मयोग क्षरकी साधना है,
ज्ञानयोग अक्षरकी साधना है और भक्तियोग पुरुषोत्तमकी साधना है
। अतः कर्मयोग और ज्ञानयोग‒ये दोनों साधन हैं और भक्तियोग
साध्य है । भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि मैं अपने समग्ररूपका वर्णन करूँगा,
जिसको जाननेपर कुछ भी जानना बाकी नहीं रहेगा । उसका वर्णन करनेमें
मैं कुछ भी शेष नहीं रखूँगा‒‘वक्ष्याम्यशेषतः’ (गीता ७/२)
और उसको जाननेपर तुम्हारे लिये कुछ भी जानना शेष नहीं रहेगा‒‘यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते’ (७/२) । किस
बातको जाननेसे कुछ भी जानना शेष नहीं रहेगा ? इसको बताते हैं‒ मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनञ्जय । (गीता ७/७) ‘हे धनञ्जय ! मेरेसे बढ़कर इस जगत्का दूसरा
कोई किंचितमात्र भी कारण तथा कार्य नहीं है ।’ जब समग्रके सिवाय कोई वस्तु है ही नहीं तो फिर जानना बाकी
क्या रहे ? उस समग्र परमात्माके अंश (स्वरूप)-का ज्ञान ही पूर्ण ज्ञान है । ज्ञानमार्गमें तो परमात्माके अंश
(स्वरूप)-का ज्ञान होता है, पर भक्तिमार्गमें समग्र
परमात्माका ज्ञान होता है । कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग, अष्टांगयोग, लययोग,
राजयोग आदि जितने योग हैं, वे सब-के-सब समग्रके ज्ञानके अन्तर्गत आ जाते हैं ।
परन्तु सम्पूर्ण योगियोंमें भी सर्वश्रेष्ठ योगी वे हैं, जो श्रद्धा-प्रेमपूर्वक
भगवान्का भजन करते हैं‒ योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना । श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥ (गीता ६/४७) ‘सम्पूर्ण योगियोंमें भी जो श्रद्धावान् भक्त
मुझमें तल्लीन हुए मनसे (प्रेमपूर्वक) मेरा भजन करता है, वह मेरे मतमें
सर्वश्रेष्ठ योगी है ।’ मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते । श्रद्धया परयोपेताः ते मे युक्ततमा मताः ॥ (गीता १२/२) ‘मेरेमें मनको लगाकर नित्य-निरन्तर मेरेमें
लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धासे युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे मतमें
सर्वश्रेष्ठ योगी हैं ।’
इस प्रकार भक्तिको ही भगवान्ने श्रेष्ठ बताया
है । |