।। श्रीहरिः ।।

        





आजकी शुभ तिथि–
     श्रावण शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०७८, गुरुवार               
  विज्ञानसहित ज्ञान



‘मेरा कुछ नहीं है’‒ऐसा माननेसे मनुष्य ममतारहित हो जाता है, ‘मेरेको कुछ नहीं चाहिये’‒ऐसा माननेसे कामनारहित हो जाता है और ‘मेरेको (अपने लिये) कुछ नहीं करना है’‒ऐसा माननेसे कर्तृत्वरहित हो जाता है । ममतारहित, कामनारहित और कर्तृत्वरहित होनेसे मनुष्य ‘स्व’ में स्थित अर्थात्‌ ‘मुक्त’ हो जाता है । अगर साधक अपनी सत्ताको परमात्माकी सत्ताके अर्पित कर देता है अर्थात्‌ ‘मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌ मेरे हैं’‒ऐसी आत्मीयता (अभिन्नता) स्वीकार कर लेता है तो वह ‘स्वकीय’ में स्थित अर्थात्‌ ‘भक्त’ हो जाता है ।

अगर कोई साधक ज्ञानमार्ग (निर्गुणोपासना)-का आग्रह रखकर भक्तिमार्ग (सगुणोपासना)-की उपेक्षा, अनादर, खण्डन, निन्दा अथवा तिरस्कार करता है तो उसको मुक्त होनेके बाद भी भक्तिकी प्राप्ति नहीं होगी । अगर साधक अपने साधनाका आग्रह न रखे, भक्तिकी उपेक्षा, तिरस्कार न करे, प्रत्युत उसका आदर करे तो उसको मुक्त होनेके बाद भक्तिकी प्राप्ति स्वतः-स्वाभाविक हो जायगी । इसलिये गीतामें भगवान्‌ने ‘येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि’ (४/३५) पदोंसे कहा है कि ‘तत्त्वज्ञान होनेपर सम्पूर्ण प्राणियोंको निःशेषभावसे पहले अपनेमें देखेगा (द्रक्ष्यसि आत्मनि)‒यह मुक्तिकी प्राप्ति है, और ‘उसके बाद मेरेमें देखेगा’ (अथो मयि)‒यह भक्तिकी प्राप्ति है । वास्तवमें हम शरीरके साथ कभी मिल सकते ही नहीं और परमात्मासे कभी अलग हो सकते ही नहीं । अतः मुक्त होना और भक्त होना वास्तविकता है ।

मुक्तिमें तो सूक्ष्म अहम्‌की गन्ध रह जाती है, जिससे द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि मतभेद पैदा होते हैं, पर प्रेमकी प्राप्तिमें अहम्‌का सर्वथा अभाव हो जाता है[*], जिससे सम्पूर्ण मतभेद मिटकर ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अर्थात्‌ परा-अपराके सहित भगवान्‌के समग्ररूपका अनुभव हो जाता है । यही ‘विज्ञानसहित ज्ञान’ है, जिसको जाननेके बाद फिर कुछ जाननेयोग्य शेष रहता ही नहीं‒‘यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते’ (गीता ७/२) और जिसको जानकर साधक जन्म-मरणरूप संसारसे मुक्त हो जाता है‒‘यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्’ (गीता ९/१) । इसी विज्ञानसहित ज्ञानका वर्णन भगवान्‌ने सातवें, नवें, दसवें और ग्यारहवें अध्यायमें किया है । फिर बारहवें अध्यायमें इसका निर्णय किया है कि केवल ज्ञानकी अपेक्षा विज्ञानसहित ज्ञान श्रेष्ठ है । कारण कि ‘ज्ञान’ में निर्गुणकी उपासना है और ‘विज्ञान’ में सगुण (समग्र)-की उपासना है । सगुणकी उपासना समग्रकी उपासना है । परन्तु निर्गुणकी उपासना समग्रके एक अंगकी उपासना है; क्योंकि निर्गुणमें गुणोंका निषेध होनेसे उसके अन्तर्गत सगुण (समग्र) नहीं आ सकता, जबकि सगुण (समग्र)-में किसीका भी निषेध न होनेसे निर्गुण भी उसके अन्तर्गत आ जाता है । इसलिये सगुणका उपासक विज्ञानसहित ज्ञानको अर्थात्‌ सगुण-निर्गुण, साकार-निराकारके सहित भगवान्‌के समग्ररूपको जान लेता है[†]

‘ज्ञान’ से मुक्ति प्राप्त होती है और ‘विज्ञान’ से भक्ति प्राप्त होती है । मुक्तिमें परमात्मासे सधर्मता होती है‒‘मम साधर्म्यमागताः’ (गीता १४/२) और भक्तिमें परमात्मासे आत्मीयता (अभिन्नता) होती है‒‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ (गीता ७/१८)अन्तिम प्रापणीय तत्त्व भक्ति ही है; अतः इसीकी प्राप्तिमें मानवजीवनकी पूर्णता है । 

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सत्यकी खोज’ पुस्तकसे



[*] प्रेम भगति जल बिनु रघुराई । अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ॥

(मानस, उत्तर॰ ४९/३)

[†] जरामरणमोक्षाय    मामाश्रित्य   यतन्ति  ये ।

    ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥

    साधिभूताधिदैवं  मां  साधियज्ञं च  ये विदुः ।

     प्रयाणकालेऽपि  च मां  ते   विदुर्युक्तचेतसः ॥

(गीता ७/२९-३०)

‘वृद्धावस्था और मृत्युसे मुक्ति पानेके लिये जो मनुष्य मेरा आश्रय लेकर प्रयत्न करते हैं, वे उस ब्रह्मको, सम्पूर्ण अध्यात्मको और सम्पूर्ण कर्मको जान लेते हैं ।’

‘जो मनुष्य अधिभूत तथा अधिदैवके सहित और अधियज्ञके सहित मुझे जानते हैं, वे मुझमें लगे हुए चित्तवाले मनुष्य अन्तकालमें भी मुझे ही जानते हैं अर्थात्‌ प्राप्त होते हैं ।’