भगवान् दर्शन भी अकिञ्चन
भक्तोंको ही देते हैं‒‘त्वामकिञ्चनगोचरम्’ (श्रीमद्भा॰ १/८/२६) । इसलिये कोई भी वस्तु
अपनी और अपने लिये नहीं है‒ऐसा स्वीकार करके अनुभव करते ही हम अकिञ्चन हो जाते
हैं, भगवान्के प्रेमी हो जाते हैं‒‘प्रियो हि
ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः’ (गीता ७/१७) । (२) इच्छा अभावसे पैदा होती
है । सत्तामात्र अपने स्वरूपमें कभी अभाव नहीं होता‒‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६) । इसलिये अपनेमें कोई
इच्छा नहीं होती । जब अनन्त सृष्टिमें कोई वस्तु हमारी और हमारे लिये हैं ही नहीं
और कोई वस्तु स्वयंतक पहुँच सकती ही नहीं, हमें प्राप्त हो सकती ही नहीं तो फिर
किसकी इच्छा करें और क्यों करें ? जिस शरीरको हम ‘मैं’,
‘मेरा’ और ‘मेरे लिये’ मानते हैं, वह शरीर भी हमें आजतक प्राप्त हुआ नहीं, प्राप्त
है नहीं, प्राप्त होगा नहीं, प्राप्त होना सम्भव ही नहीं । कारण कि वह
निरन्तर बदलता है और हम निरन्तर रहते हैं । तात्पर्य है कि शरीरका स्वयंसे कभी
संयोग हुआ ही नहीं; क्योंकि ये दोनों ही परस्पर विरुद्ध स्वभाववाले हैं । इसलिये न
तो हमें संसारसे कुछ चाहिये और न भगवान्से ही कुछ
चाहिये । संसारसे इसलिये कुछ नहीं चाहिये कि उसके पास ऐसी कोई वस्तु है ही
नहीं, जो वह हमें दे सके । भगवान्से भी शान्ति, मुक्ति, सद्गति, दर्शन आदि कुछ
नहीं चाहिये; क्योंकि इनको देना भगवान्का कर्तव्य है, जो उनके अधीन है । हमारा
काम भगवान्को उनका कर्तव्य बताना नहीं है, प्रत्युत अपने कर्तव्यका पालन करना है
। हमारा कर्तव्य यह है कि हम भगवान्के सिवाय किसीको भी
अपना न मानकर अपनेको सर्वथा अर्पण कर दें और भगवान्से कुछ भी न माँगें; क्योंकि
वास्तवमें भगवान्के सिवाय अपना कोई है ही नहीं । एक मार्मिक बात है कि भगवान्के
सिवाय दूसरी वस्तुको अपना माननेसे भगवान्से सम्बन्ध-विच्छेद अर्थात् विमुखता
होती है । इसी तरह भगवान्से कोई वस्तु माँगनेसे उस वस्तुके साथ सम्बन्ध होता है
और देनेवाले (भगवान्)-से सम्बन्ध-विच्छेद होता है । मनुष्यसे
यही भूल होती है कि वह मिली हुई वस्तुओंको तो अपना मानता है; पर उनको, देनेवालेको
अपना नहीं मानता ! मिली हुई वस्तुएँ तो बिछुड़ जायँगी, पर भगवान् नहीं बिछुड़ेंगे
। (३) सत्तामात्र हमारे स्वरूपमें
कोई क्रिया नहीं है । क्रियामात्र प्रकृतिमें ही होती है । स्वयं किंचिन्मात्र भी
कुछ नहीं करता‒‘नैव किंचित्करोमीति’ (गीता ५/८), ‘नैव
किंचित्करोति सः’ (गीता ४/२०) । मनुष्य जो कुछ करता है, कुछ-न-कुछ पानेके
लिये ही करता है । जब सृष्टिमात्रमें कोई भी वस्तु हमारी
और हमारे लिये है ही नहीं तो फिर किसको पानेके लिये कर्म किया जाय ? इसलिये
हमें अपने लिये कुछ करना है ही नहीं ।
अगर हम शरीर आदि
किसी भी वस्तुको अपना मानें तो कभी सर्वथा निष्काम हो सकते ही नहीं; क्योंकि शरीरको रोटी-कपड़ा आदि
सब कुछ चाहिये । सर्वथा निष्काम हुए बिना क्रियाका त्याग भी नहीं हो सकता; क्योंकि
कामना-पूर्तिके लिये क्रिया करनी ही पड़ेगी । इसलिये ‘मेरा
कुछ नहीं है’‒यह अनुभव करनेकी सामर्थ्य आ जाती है, और ‘मेरेको कुछ नहीं चाहिये’‒ऐसा
अनुभव करनेकी सामर्थ्य आ जाती है, और ‘मेरेको कुछ नहीं चाहिये’‒यह अनुभव होनेपर
‘मेरेको कुछ नहीं करना है’‒ऐसा अनुभव करनेकी सामर्थ्य आ जाती है । |