जब मनुष्य संसारको
अपना और अपने लिये मान लेता है, तब उसको अपनी और संसारकी (परा और अपराकी)
स्वतन्त्र सत्ता प्रतीत होने लगती है । इसका परिणाम यह होता है कि जीव जगत्के अधीन (पराधीन) हो जाता है और
जन्म-मरणमें पड़कर दुःख पाता है । इस पराधीनतासे छूटनेके
लिये साधकके लिये तीन खास बातें हैं‒ (१)
मेरा कुछ नहीं है । (२)
मेरेको कुछ नहीं चाहिये । (३) मेरेको अपने लिये कुछ नहीं करना है । (१) हमारा स्वरूप (स्वयं) सत्तामात्र है । इस स्वरूपके साथ कुछ भी नहीं है । संसारकी कोई भी वस्तु और क्रिया स्वरूपतक नहीं पहुँचती । तात्पर्य यह हुआ कि अपने पास अपने सिवाय कुछ भी नहीं है । ‘मैं’ कहलानेवाला स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर भी अपने साथ नहीं है और हम उसके साथ नहीं है । अगर शरीर हमारे साथ रहता तो हमारे अनेक जन्म कैसे होते ? हम अनेक शरीर कैसे धारण करते ? अगर हम शरीरके साथ रहते तो मुक्ति कभी होती ही नहीं । प्रत्येक देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, परिस्थिति, अवस्था आदिमें निरन्तर परिवर्तन होता है, उत्पत्ति-विनाश होता है, पर अपनेमें (स्वरूपमें) कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तन, उत्पत्ति-विनाश नहीं होता । इन देश, काल आदि सबके अभावका अनुभव हमें होता है, पर अपने अभावका अनुभव कभी किसीको नहीं होता । परिवर्तनशील एवं नाशवान् वस्तु (शरीर-संसार) अपरिवर्तनशील एवं अविनाशी तत्त्वके साथ कैसे रह सकती है और उसके क्या काम आ सकती है ? अमावस्याकी रात सूर्यके साथ कैसे रह सकती है और सूर्यके क्या काम आ सकती है ? सांसारिक शरीर, बल, बुद्धि, विद्या, योग्यता, सुन्दरता आदि संसारके काम आते हैं, हमारे काम किंचिन्मात्र भी नहीं आते । तात्पर्य है कि अपरा प्रकृति और उसके कार्य शरीर-संसारके द्वारा हमें कुछ भी नहीं मिलता, हमारी किंचिन्मात्र भी पुष्टि नहीं होती, हित नहीं होता, हो सकता भी नहीं । अनन्त ब्रह्माण्ड मिलकर भी हमारी पूर्ति, सन्तुष्टि नहीं कर सकते । इसलिये अनन्त सृष्टियों, अनन्त ब्रह्माण्डोंमें एक भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो हमारी हो और हमारे लिये हो ! जीव और परमात्मा‒दोनों ही
अकिंचन हैं । जीव इसलिये अकिंचन है कि उसके लिये संसारमें ‘मेरा कुछ नहीं है’
अर्थात् उसका भगवान्के सिवाय और किसीसे सम्बन्ध नहीं है, और परमात्मा इसलिये
अकिंचन हैं कि उनके सिवाय दूसरी कोई सत्ता नहीं है‒‘मत्तः
परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति’ (गीता ७/७), ‘सदसच्चाहम्’’ (गीता ९/१९) । जबतक जीवकी दृष्टिसे संसारकी सत्ता है, तबतक उसके पास कुछ नहीं है और जब
उसकी दृष्टिमें संसारकी सत्ता नहीं रहती, तब भगवान्के सिवाय कुछ नहीं है‒‘वासुदेवः सर्वम् ।’ उसकी भगवान्के साथ आत्मीयता हो
जाती है‒‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ (गीता ७/१८), ‘मयि ते
तेषु चाप्यहम्’ (गीता ९/२९) । इसलिये भगवान्ने रुक्मणीजीसे कहा है कि हम सदासे अकिंचन हैं और अकिंचन भक्तोंसे ही हम प्रेम करते हैं
और वे हमारेसे प्रेम करते हैं‒ निष्किञ्चना वयं
शश्वन्नष्किञ्चनजनप्रियाः । (श्रीमद॰ १०/६०/१४) |