।। श्रीहरिः ।।

     





आजकी शुभ तिथि–
       श्रावण शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०७८, सोमवार               
  विज्ञानसहित ज्ञान



‘मैं भगवान्‌का और भगवान्‌के लिये ही हूँ’‒ऐसा स्वीकार कर लेना अपने-आपको भगवान्‌के अर्पित करना है और ‘शरीर संसारका और संसारके लिये ही है’‒ऐसा अनुभव कर लेना शरीरको संसारके अर्पित करना है । इस प्रकार भगवान्‌की चीज भगवान्‌को दे दी‒यह ‘भक्तियोग’ हो गया और संसारकी चीज संसारको दे दी‒यह ‘कर्मयोग’ हो गया और न तो भगवान्‌से तथा न संसारसे ही कुछ चाहनेसे स्वयं असंग हो गया‒यह ‘ज्ञानयोग’ हो गया । इस प्रकार कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग‒तीनों सिद्ध होनेसे परा और अपराकी स्वतन्त्र सत्ताकी मान्यता मिट जाती है और ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव हो जाता है ।

जो अपना कल्याण चाहता है, वह अगर अपरा (जगत्‌)-को सच्चा मानता है तो उसके लिये ‘कर्मयोग’ (भौतिक साधना) है, अगर परा (जीव अर्थात्‌ चेतन)-को सच्चा मानता है तो उसके लिये ‘ज्ञानयोग’ (आध्यात्मिक साधना) है और अगर परमात्माको सच्चा मानता है तो उसके लिये ‘भक्तियोग’ (आस्तिक साधना) है । अगर वह किसीको भी सच्चा नहीं मानता तो भी उसका कल्याण हो जायगा ! कारण कि किसीको भी न माननेसे उसपर संसार आदिका प्रभाव नहीं पड़ेगा और वह स्वतः निर्विकल्प हो जायगा । मनुष्यपर उसी वस्तुका असर पड़ता है, जिसको वह सच्चा मानता है ।

हमने संसारकी चीज संसारको दे दी तो अब हम संसारसे कुछ चाहनेके अधिकारी ही नहीं रहे । इसी तरह भगवान्‌की चीज भगवान्‌को दे दी तो हमें स्वतः प्रेमकी प्राप्ति हो जायगी । प्रेमसे बढ़कर कोई चीज है ही नहीं, जिसकी चाहना हम भगवान्‌से करें । संसारकी चीज संसारको दे देना ‘योग’ है और संसारसे कुछ चाहना ‘भोग’ है । भगवान्‌की चीज भगवान्‌को देना ‘योग’ है और भगवान्‌से कुछ माँगना ‘भोग’ है ।

वास्तवमें मनुष्यशरीर कर्मयोनि अथवा भोगयोनि नहीं है, प्रत्युत साधनयोनि अथवा प्रेमयोनि है; क्योंकि भगवान्‌ने मनुष्यको प्रेमके लिये ही बनाया है‒‘एकाकी न रमते’ । इसलिये प्रेमकी प्राप्ति मनुष्यजन्ममें ही हो सकती है । सम्पूर्ण योनियोंमें एक मनुष्य ही ऐसा है, जो भगवान्‌को अपना मान सकता है, भगवान्‌से कह सकता है कि मैं तेरा हूँ, तू मेरा है अथवा केवल तू-ही-तू है । कारण कि भगवान्‌ने संसारको जीवोंके लिये बनाया है और मनुष्यको अपने लिये बनाया है । मनुष्यमें संसारको अपना न माननेकी और भगवान्‌को अपना माननेकी जो योग्यता और सामर्थ्य है, वह भी वास्तवमें भगवान्‌की ही दी हुई है । भगवान्‌की दी हुई योग्यता और सामर्थ्यसे ही मनुष्य भगवान्‌से प्रेम करता है ।

संसार निरन्तर बदलनेवाला (अप्राप्त) है तथा अपना नहीं है, फिर भी वह हमारेको प्रिय लगता है और परमात्मा सब देश, काल आदिमें ज्यों-के-त्यों विद्यमान (नित्याप्राप्त) हैं तथा अपने हैं, फिर भी वे हमारेको प्रिय नहीं लगते ! इसका कारण यह है कि हम संसारकी निन्दा तो करते हैं, पर उसकी सत्ता और महत्ता नहीं है तथा वह अपना नहीं है‒यह अनुभव नहीं करते । इसी तरह हम परमात्माकी महिमा तो गाते हैं, पर उनको सत्ता और महत्ता देकर अपना स्वीकार नहीं करते । इसलिये साधकका खास काम है‒विवेकपूर्वक संसारको अपना न मानना और श्रद्धा-विश्वासपूर्वक भगवान्‌को अपना मानना, जो कि वास्तविकता है ।