जीव तथा परमात्मा ‘प्राप्त’ हैं
और स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर तथा संसार ‘प्रतीति’ हैं । ‘प्राप्त’ सत्-रूप है और
‘प्रतीति’ असत्-रूप हैं । असत्की तो सत्ता विद्यमान नहीं है और सत्का अभाव
विद्यमान नहीं है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते
सतः’ (गीता २/१६) । तात्पर्य है कि ‘प्राप्त’ दीखता नहीं है, पर उसकी सत्ता
मौजूद है और ‘प्रतीति’ दीखती तो है, पर उसकी सत्ता मौजूद है ही नहीं । मैं अमुक
वर्ण, आश्रम आदिका हूँ‒यह ‘प्रतीति’ को लेकर है और मैं साधक (योगी, मुमुक्षु, भक्त
आदि) हूँ‒यह ‘प्राप्त’ को लेकर है । जब मनुष्यमें
‘प्रतीति’ की मुख्यता होती है, तब वह संसारी होता है और जब उसमें ‘प्राप्त’ की
मुख्यता होती है, तब वह साधक होता है । इसलिये साधकमें ‘प्राप्त’ की मुख्यता होनी
चाहिये । प्रतीतिकी मुख्यता होनेसे साधनकी सिद्धिमें बहुत कठिनता होती है । मुक्ति
अथवा भक्तिकी प्राप्ति प्रतीतिको नहीं होती, प्रत्युत ‘प्राप्त’ (स्वयं)-को ही
होती है । इसलिये भगवान्ने सातवें अध्यायमें सोलहवें श्लोकमें अपने भक्तोंके चार
प्रकार (अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी) बताकर नवें अध्यायके तीसवेंसे
तैतीसवें श्लोकतक कहा कि दुराचारी, पापयोनि, स्त्रियाँ, वैश्य, शूद्र, ब्राह्मण
तथा क्षत्रिय‒ये सभी व्यक्ति चार प्रकारके भक्त बन सकते हैं । इसी बातको दूसरे
शब्दोंमें कहें तो भगवान्की प्राप्ति दुराचारी, पापयोनि, स्त्रियाँ, वैश्य,
शूद्र, ब्राह्मण तथा क्षत्रियको नहीं होती, प्रत्युत ‘भक्त’ (स्वयं)-को होती है[*] ! (गीता ९/३३) । इसलिये शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिकी मुख्यता रखनेवाला कोई भी
मनुष्य भोगी तो बन सकता है, पर योगी नहीं बन सकता । जो ‘प्राप्त’ है, वह ‘परा प्रकृति’ है और जो ‘प्रतीति’ है, वह ‘अपरा प्रकृति’ है । परा और अपरा‒दोनों ही प्रकृतियाँ भगवान्की होनेसे भगवत्स्वरूप हैं‒‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९/१९) । परन्तु जीव (परा)-ने जगत् (अपरा)-को धारण कर लिया अर्थात् उसको स्वतन्त्र सत्ता और महत्ता देकर अपना मान लिया‒‘मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति’ (गीता १५/७) । यही जीवकी मूल भूल है, जिसके कारण वह जगत् बन गया[†] अर्थात् जगत्की तरह परिवर्तनशील, जन्मने-मरनेवाला बन गया । इस भूलको मिटानेके लिये साधकको चाहिये कि वह ‘परा’ को अर्थात् अपने-आपको भगवान्के अर्पित कर दे और ‘अपरा’ को अर्थात् शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको संसारके अर्पित कर दे, संसारकी सेवामें लगा दे । [*] नाहं विप्रो न च नरपतिर्नापि वैश्यो न शूद्रो नो वा वर्णी न च गृहपतिर्नो वनास्थो यतिर्वा
। किन्तु
प्रोद्यन्निखिलपरमानन्दपूर्णामृताम्ब्धे- गोर्पिभर्तुः
पदकमलयोर्दासदासानुदासः ॥ ‘मैं न तो ब्राह्मण हूँ, न वैश्य हूँ, न
शूद्र हूँ; न ब्रह्मचारी हूँ, न गृहस्थ हूँ और न संन्यासी ही हूँ; किन्तु सम्पूर्ण
परमानन्दमय अमृतके उमड़ते हुए महासागररूप गोपीकान्त श्यामसुन्दरके चरणकमलोंके
दासोंका दासानुदास हूँ ।’ [†] त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् । मोहितं
नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥ (गीता
७/१३) ‘इन तीनों गुणरूप भावोंसे मोहित यह सम्पूर्ण
जगत् (प्राणिमात्र) इन गुणोंसे अतीत अविनाशी मुझे नहीं जानता ।’ ‒इस श्लोकमें जीवात्माके लिये ‘जगत्’ शब्द आया है । |