जितने भी शास्त्र (दर्शन) हैं,
उनके दो विभाग हैं‒ईश्वरको माननेवाले और ईश्वरको न माननेवाले । ईश्वरको माननेवाले
शास्त्रोंमें गीता मुख्य है । गीताका खास सिद्धान्त है‒‘वासुदेवः
सर्वम्’ अर्थात् सब कुछ परमात्मा ही हैं । जिन दार्शनिकोंने अपने दर्शन (अनुभव)-में, अपने मतमें
पूर्ण सन्तोष कर लिया, वे तो वहीं रुक गये, पर जिन्होनें अपने दर्शनमें सन्तोष
नहीं किया, उन्होंने ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव
कर लिया । ‘वासुदेवः सर्वम्’ का अनुभव होनेपर सम्पूर्ण दार्शनिकोंमें और उनके दर्शनोंमें
परस्पर मतभेद सर्वथा मिट जाता है और वे सब एक हो जाते हैं । शास्त्रोंमें जगत्, जीव और
परमात्मा‒इन तीनोंका ही विवेचन आता है; क्योंकि इन तीनोंके सिवाय चौथी कोई वस्तु
है ही नहीं । इन तीनोंको गीताने अनेक नामोंसे कहा है; जैसे‒‘जगत्’ को अपरा,
क्षेत्र, क्षर आदि, ‘जीव’ को परा, क्षेत्रज्ञ, अक्षर आदि और ‘परमात्मा’ को ब्रह्म,
पुरुषोत्तम आदि नामोंसे कहा है । भगवान्ने गीतामें अपरा (जगत्) और परा
(जीव)‒दोनोंको ही अपनी प्रकृति (स्वाभाव या शक्ति) बताया है[*] । जैसे शक्तिमान्के बिना
शक्तिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती, ऐसे ही परमात्माके बिना जगत् और जीवकी
स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । परमात्माके ही एक अंशमें जीव है और जीवके एक अंशमें
जगत् है‒‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७/५) ।
इसलिये गीतामें जगत्, जीव और परमात्माके वर्णनका तात्पर्य उनको अलग-अलग बतानेमें
नहीं है, प्रत्युत सबको एक और अभिन्न बतानेमें ही है[†] । परा और अपरा‒दोनों प्रकृतियोंके साथ परमात्माका समान सम्बन्ध है । परन्तु परा प्रकृतिका सम्बन्ध अपरा प्रकृतिके साथ नहीं है । कारण कि परा और अपरा‒दोनोंका स्वाभाव अलग-अलग है । परा नित्य अपरिवर्तनशील तथा अविनाशी है और अपरा (शरीर-संसार) निरन्तर परिवर्तनशील तथा विनाशी है । परा प्रकृति परमात्माका अंश होनेसे परमात्माके ही स्वभाववाली है अर्थात् जैसे परमात्मा नित्य अपरिवर्तनशील तथा अविनाशी स्वाभाववाले हैं, ऐसे ही उनका अंश परा प्रकृति भी है । तात्पर्य यह हुआ कि जीव परमात्माका अविभाज्य अंश है और शरीर संसारका अविभाज्य अंश है । [*] भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो
बुद्धिरेव च । अहंकार इतीयं मे
भिन्ना
प्रकृतिरष्टधा ॥ अपरेयमितस्त्वन्यां
प्रकृतिं विद्धि मे पराम् । जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥ (गीता
७/४-५) ‘पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश‒ये पंचमहाभूत
और मन, बुद्धि तथा अहंकार‒इस प्रकार यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी यह अपरा
प्रकृति है; और हे महाबाहो ! इस अपरा प्रकृतिसे भिन्न जीवरूप बनी हुई मेरी परा प्रकृतिको
जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है ।’ [†] एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं
नातः परं
वेदितव्यं हि किञ्चित् । भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत् ॥ (श्वेताश्वतर॰ १/१२) ‘अपने ही भीतर स्थित इस ब्रह्मको ही सर्वदा जानना चाहिये; क्योंकि इससे बढ़कर जाननेयोग्य तत्त्व दूसरा कुछ भी नहीं है । भोक्ता (जीवात्मा), भोग्य (जगत्) और उनके प्रेरक परमेश्वरको जानकर मनुष्य सब कुछ जान लेता है । इस प्रकार यह तीन भेदोंमें बताया हुआ ब्रह्म ही है अर्थात् जीव, जगत् और परमात्मा‒तीनों समग्र ब्रह्मके ही रूप हैं ।’ |