जब सम्बन्ध भगवान्के
साथ जोड़ लेंगे तो उनकी बातें ही सुनेंगे । बादमें तरह-तरहकी बातें कौन सुनेगा ? बताओ ! सुनें तो असर
नहीं होगा । उसी रीतिसे दूसरी बातें नहीं सुनते जिस रीतिसे लड़की दूसरे लड़कोंकी
बातें नहीं सुनती । केवल सम्बन्धवाले लड़केकी बात सुनती
है; उसको कभी देखा नहीं, पहले सुना भी नहीं, बस माँ-बापने सम्बन्ध कर दिया कि हमने
अमुकको लड़की दी । इसी प्रकार भगवान्से सम्बन्ध जोड़ लेना है । हमें तो
भगवत्प्राप्ति करना है फिर भगवान्की बात
अच्छी लगेगी । स्वतः ही, स्वाभाविक ही । फिर मन और कहीं क्यों जायगा ? कहाँ
जायगा ? हमें मतलब ही नहीं है दूसरेसे भाई ! हमें क्या काम दुनियासे हमें श्रीकृष्ण प्यारे हैं । यशोदा नन्दके नन्दन मेरे
आँखोंके तारे हैं ॥ हमें क्या मतलब ? दुनियासे क्या लेना-देना ? न लेना है, न
देना है । हमारे तो एक भगवान् हैं और वे ही हमारे हैं । भगवान्के गुण सुनें, उनके चरित्र सुनें, उनकी महिमा सुनें
। उनके परायण होवें । सुननेसे बड़ा लाभ होता है । भक्तोंके
चरित्रोंसे बड़ा लाभ होता है । वह भी एक बढ़िया उपाय है । दिनमें घंटा, दो
घंटा आप कहीं एकान्तमें बैठ जाओ, कमरेमें बैठ जाओ । दरवाजा कर लो बन्द । भक्तोंके चरित्र पढ़ो । जिनको पढ़ते-पढ़ते गद्गद हो जाय और
प्रियता आवे, उस समय पुस्तकको छोड़ दो । नाम-जप है, कीर्तन है, शुरू कर दो ।
भगवान्का चिन्तन-भजन शुरू कर दो । जब मन फिर इधर-उधर जावे और वैसी बात न रहे, तो
फिर एक पन्ना पीछेसे पढ़ो । फिर पढ़ते-पढ़ते भाव आ जावे फिर छोड़ दो वहाँ । पुस्तक पढ़ना या पूरा करना
है‒यह मतलब नहीं । मन लगाना है
। बस, वहाँ लगा दिया । उसके बाद फिर नाम-जप करते रहो, कीर्तन करते रहो ।
प्रार्थना करते रहो । भगवान्से बातें करते रहो मनमें ।
हमारा मन नहीं लगता महाराज ! मैं क्या करूँ ? आप कब दर्शन दोगे ? आपके चरणोंमें
कब प्रेम होगा ? ऐसे एक पुस्तक
निकली है गीताप्रेससे ‘ध्यानावस्थामें प्रभुसे
वार्तालाप’ । उस पुस्तकके अनुसार करो, बड़ा लाभ होगा । चलते-फिरते भगवान्से
बात करना शुरू कर दो । मनसे प्रश्न पूछो तो मनसे उत्तर मिले । जो स्फुरणा हो जाय
फिर भगवान्से पूछो‒सुगमतासे मन लग जायगा । इसी प्रकार विनयपत्रिका
ले ली अथवा कोई स्तुति ले ली । स्तुति करते-करते मन लग जाय तब चिन्तन करना, नाम-जप
करना शुरू कर दो । जब छूट जाय तो फिर पढ़ना शुरू कर दो । इन बातोंमेंसे कोई बात
अपनाकर आप देखें । ऐसे तो यह युक्तिसंगत जँचती है । बात यह ठीक है । ऐसे हो सकता
है कि नहीं ? यदि सम्भव है तो करके देखो । करके देखनेसे
पता लगता है कि कहाँ-कहाँ विघ्न आते हैं ? कहाँ बाधा आती है ? क्यों बाधा आती है ?
इन बातोंका पता लगेगा । यदि मन अधिक चंचल हो तो आप जप करते रहे, थोड़ी-थोड़ी देर बाद
भगवान्से कहता रहे कि आपके चरणोंमें मन नहीं लगता । हे भगवन् ! मन नहीं लगता है ।
नमस्कार करे और कहता रहे । यह बड़ी सरल बात है । नाम-जप
करता रहे, आधा मिनट हुआ, एक मिनट हुआ फिर कह दिया, महाराज ! मन नहीं लगता !
कहना‒प्रार्थना हो गयी । भगवान्की याद आ गयी । नाम-जप हो रहा है ।
पाँच-सात दफे मालामें कह देवे । महाराज, मन नहीं लगता । हे नाथ ! मैं भूल जाता हूँ
। हे नाथ ! मन नहीं लगता । नमस्कार करते रहो, कहते रहो । षोड्श-मन्त्र ब्रह्माजीका
बताया हुआ है, यह जपता रहे और प्रार्थना करता रहे । हे नाथ ! मन नहीं लगता । हे
भगवन् क्या करूँ ? महाराज ! आपके चरणोंमें मन नहीं लगता । कहते रहो । उनकी कृपासे मन लगने लगेगा । नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
—‘जीवनोपयोगी प्रवचन’ पुस्तकसे |