।। श्रीहरिः ।।

                                   


आजकी शुभ तिथि–
  कार्तिक कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७८, सोमवार
                             
            सत्संग सुननेकी विद्या


यदि श्रोतामें एकमात्र परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य नहीं है और वह केवल सीखनेके लिये, सीखकर व्याख्यान देनेके लिये सत्संग सुनता है तो वह सत्संगको बुद्धिका विषय बनाता है और सीखे हुए ज्ञानको ही अनुभव मान लेता है । ऐसे (सीखनेके उद्देश्यसे सत्संग करनेवाले) श्रोतको सत्संगमें नयापन नहीं दीखता और वह कहता है कि इन बातोंको मैं जानता हूँ, इनको बार-बार सुननेसे क्या लाभ ? सीखे हुए ज्ञानसे श्रोता पण्डित, वक्ता, लेखक तो हो सकता है, पर वह तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त, भगवत्प्रेमी नहीं हो सकता । वह दूसरोंको उनके प्रश्नोंका उत्तर दे सकता है, उनको ज्ञानकी बातें सीखा सकता है, पुस्तक लिख सकता है, पर तत्त्वका अनुभव नहीं कर सकता । कारण कि वाचिक ज्ञानी बननेसे उसमें ज्ञानका अभिमान पैदा हो जाता है । जैसे बहेड़ेकी छायामें कलियुग रहता है, ऐसे ही अभिमानकी छायामें सम्पूर्ण दोष और उनके कारण विद्यमान रहते हैं । परन्तु जो सच्चे हृदयसे परमात्मप्राप्ति करना चाहता है, वह तो अनुभवके लिये ही सुनता है, सीखनेके लिये नहीं । वह सत्संगको केवल बुद्धिका विषय ही नहीं बनाता, प्रत्युत साथ-साथ उसमें तल्लीन भी होता है ।

यद्यपि आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़नेसे तथा प्रवचनोंकी कैसेट सुननेसे भी लाभ होता है, तथापि अनुभवी पुरुषके द्वारा सुननेसे बहुत अधिक विचित्र लाभ होता है । जिसने पहले प्रवचन सुना है, वह यदि उस प्रवचनकी कैसेट सुने तो उसपर जितना असर पड़ता है, उतना नये आदमीपर नहीं पड़ता । कारण कि जिसने पहले सत्संग सुना है, वह उसकी कैसेट सुनेगा तो वह सब-का-सब दृश्य उसके मनके सामने आ जायगा, जिससे एक विलक्षण असर पड़ेगा । इसी तरह सत्संग सुननेसे जितना असर पड़ता है, उतना पुस्तक पढ़नेसे नहीं पड़ता । कारण कि सत्संग सुननेसे वक्ताके नेत्र, हाथ आदिकी मुद्रा, उसके भाव, उसकी दृष्टिका श्रोतापर एक विलक्षण असर पड़ता है । सुननेमें तो सुनानेवालेकी बुद्धिकी प्रधानता रहती है, पर पुस्तक पढ़नेमें तथा कैसेट सुननेमें अपनी बुद्धिकी प्रधानता रहती है । अगर श्रोता वक्ताके विवेचनको ध्यानपूर्वक सुने तो उसकी बुद्धि वक्ताकी बुद्धिमें प्रविष्ट हो जाती है । श्रोता अपनी बुद्धिसे उतना नहीं समझ सकता, जितना सुनानेवालेकी बुद्धिसे समझ सकता है । अगर सुनानेवालेकी कृपादृष्टि हो जाय तो उससे बहुत विशेष लाभ होता है । जैसे गायका बछड़ा अपनी माँके स्तनोंसे दूध पीकर ही पुष्ट होता है । अगर बछड़ेकी माँ मर जाय और उसको दूसरी गायका दूध पिलाया जाय तो वह उतना पुष्ट नहीं होता । कारण कि स्तनपान करते समय गाय अपने बछड़ेको स्नेहपूर्वक चाटती है, हुँकार करती है तो उससे बछड़ेकी जैसी पुष्टि होती है, वैसी केवल दूध पीनेसे नहीं होती । ऐसे ही सन्त-महात्मा कृपा करके विशेषतासे कहें और सुननेवाला उनके सम्मुख होकर लगनपूर्वक सुने तो तत्काल तत्त्वकी प्राप्ति होती है ।

हरेक काममें भविष्य होता है, पर परमात्मतत्वमें भविष्य नहीं होता । परमात्माकी प्राप्ति धीरे-धीरे नहीं होती, प्रत्युत तत्काल होती है । सुनानेवाला अनुभवी पुरुष भी विद्यमान हो, सुननेवाला जिज्ञासु साधक भी विद्यमान हो और परमात्मतत्त्व तो विद्यमान है ही, फिर भविष्यका क्या काम ? देरी होनेका कोई कारण ही नहीं है ! परमात्मतत्व नित्य-निरन्तर सबमें विद्यमान है । सुनानेवालेने दृष्टि करायी और सुननेवालेने उसको जान लिया‒इसमें देरी किस बातकी ? बहुत-से भाई-बहनोंने ऐसी धारणा कर रखी है कि सुनते-सुनते, साधन करते-करते, धीरे-धीरे कभी परमात्माकी प्राप्ति होगी । परन्तु वास्तवमें सांसारिक काम ही ‘कभी’ होगा, पारमार्थिक काम ‘कभी’ नहीं होगा, वह तो ‘अभी’ ही होगा ।

जो वस्तु पैदा होनेवाली होती है, उसीकी प्राप्तिमें भविष्य होता है । जो पैदा होनेवाली नहीं है, प्रत्युत नित्य-निरन्तर रहनेवाली वस्तु (परमात्मतत्त्व) है, उसकी प्राप्तिमें भविष्य कैसे होगा ? सुननेकी भूख ही नहीं है, परमात्मतत्त्वकी तीव्र जिज्ञासा ही नहीं है, उसके लिये तड़पन ही नहीं है, उसके लिये व्याकुलता ही नहीं है, इसी कारण देरी हो रही है !

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे