बीकानेरकी बात है । एक जगह सत्संग हो रहा
था । गाड़ीसे उतरते ही लोग मुझे सीधे वहाँ ले गये और कहा कि कुछ सुनाओ । मैंने कहा‒मेरे
मनमें तो ऐसी आयी है कि मेरे-जैसोंको तो यहाँसे कान पकड़कर निकाल देना चाहिये कि
यहाँ सत्संग हो रहा है, तुम कैसे आ गये बीचमें । भगवान्के
यहाँ पोल चलती है, इसलिये सत्संगकी बातें कहते और सुनते हैं, नहीं तो इतने ऊँचे
दर्जेकी बातें हम सुननेके लायक नहीं हैं । फिर भी भगवान् लाज रखते हैं कि कोई बात नहीं, बच्चा है बेचारा ।
ऊँचे दर्जेकी बात उनके सामने ही कहनी चाहिये, जो अधिकारी हैं । सन्तोंने कहा है‒ हरि हीरा की गाँठड़ी, गाहक बिनु मत खोल । आसी हीरा पारखी, बिकसी
मँहगे मोल ॥ परन्तु भगवान्की इतनी कृपा है कि
हमारे-जैसे अयोग्यको भी इतनी विचित्र-विचित्र बातें मिलती हैं । भगवान् अधिकारी नहीं
देखते, योग्यता नहीं देखते । वर्षा होती
है तो जंगलपर भी पानी बरसता है और समुद्रपर भी । समुद्रमें पानीकी कमी है
क्या ? पर फिर भी बरसता है । ऐसे ही जो सन्त-महात्मा होते हैं वे भी कृपा करके बरस
पड़ते हैं, कोई ग्रहण करे, चाहे ग्रहण न करे । इसी तरह भगवान् भी कृपा करते हैं,
तो पात्र-कुपात्र नहीं देखते । कुपात्रको भी भगवान् कृपा करके बढ़िया (सत्संगका)
मौका देते हैं; अगर ऐसा बढ़िया मौका सुपात्रको मिल जाय तो फिर कहना ही क्या है !
मैंने तो एक सज्जनसे कहा था कि आपकी बुद्धि अच्छी है, अगर आप इधर लग जाओ तो बहुत
लाभ उठा सकते हो । पर उन्होंने मेरी बात मानी नहीं । मेरे मनमें आयी कि ऐसी अच्छी
बुद्धि है, अच्छे काममें लग जाय तो कितनी बढ़िया बात है ! परन्तु उनको जँचती नहीं
तो हम क्या करें ? आपलोगोंने धन कमानेमें खूब बुद्धि लगायी
है । बेईमानी करनेमें, झूठ-कपट, ठगी-जालसाजी करनेमें, टैक्सोंसे बचनेमें बुद्धि
लगानी पड़ती है । बिना बुद्धि लगाये ये काम नहीं होते । ज्यों-ज्यों नया कानून बनता
है, त्यों-त्यों आपकी बुद्धि और तेज होती है । खुदसे काम न होता हो तो वकीलसे
पूछते हैं; क्योंकि वह आपका अक्लदाता है, गुरुजी महाराज है । वह आपको बताता है कि
ऐसा करो, इस तरहसे करो । उस गुरुजीसे शिक्षा ले-लेकर आप रात-दिन अध्ययन करनेमें
लगे हैं; फिर मेरे-जैसे भिक्षुककी बात कौन माने ? आपको
वहम है कि इनकी बात मानेंगे तो हम भी इन्हींकी तरह हो जायँगे । त्याग क्या है ? भजन-स्मरण क्या है ? भगवत्सम्बन्धी बात क्या है ? धर्म क्या है ? इसको दूसरा कोई क्या जाने, जाननेवाला ही जानता है । परन्तु यह पैसोंके अधीन नहीं है, बाहरी चीजोंके अधीन नहीं है । यह तो भावके अधीन है‒‘भावग्राही जनार्दनः’ भगवान् भावग्राही हैं । जिसका भाव होगा, उसकी आध्यात्मिक उन्नति होगी । कलकत्तेकी बात है । एक धनी आदमी श्रीजयदयालजी गोयन्दकासे मिलने आया । बात चलनेपर उसने कहा कि धनसे सब कुछ मिलता है । गोयन्दकाजीने कहा कि धनसे सब कुछ मिलता है, पर महात्मा नहीं मिलते । उसने कहा धनसे तो कई महात्मा आ जायँ । गोयन्दकाजी बोले कि जो धनसे मिलते हैं, वे महात्मा नहीं होते और जो महात्मा होते हैं, वे धनसे नहीं मिलते । धनसे धनका गुलाम मिलता है । |