शरणानन्दजी महाराज सूरदास थे । वे एक जगह
गये, जहाँ कोई परिचित आदमी नहीं था । वहाँसे उनको आगे स्टेशनतक जाना था, जिसका चार
आना टिकट लगता था । वे एक आदमीसे बोले कि भाई
! टिकट लाकर दो । वह बोला‒बाबा, माफ करो ! महाराजजी बोले‒माफ कैसे करें
तुमको ? माफ नहीं कर सकते । माफ तो तब करें जब मैं पात्र
न होऊँ और तुम्हारे पास पैसा न हो । मैं पात्र हूँ और तुम्हारे पास पैसा है, फिर
माफ कैसे कर दें ? उस आदमीको टिकट लाकर देना पड़ा । अपराधीको माफ नहीं किया
जाता । अपराध क्या है ? जैसे तुम पैसा रखते हो वैसे मैं
भी पैसा रख सकता था । पर मैंने पैसे रखे नहीं, तो वे पैसे कहाँ गये ? तुम्हारे पास ही रहे । तुम खजानची हो । जब हमें
जरूरत हो, तब दिया करो । जिसको
मिलता है, उसको अपने भाग्यका मिलता है । क्या आप अपने भाग्यका देते हो ? क्या
आप रोटी नहीं खाते ? कपड़ा नहीं पहनते ? मकानमें नहीं रहते ? आप तो पूरा खाते हो, पहनते हो; परन्तु जो जमा करते हो, उसपर हमारा हक है ।
साहूकारीसे दे दो तो अच्छी बात है, नहीं तो दण्ड होगा । माफी कैसे होगी ? जो रात-दिन रुपयोंके लोभमें
लगे हैं, वे इन बातोंको समझ ही नहीं सकते । जिस बाजारमें वे गये ही नहीं, उस बाजारके भावोंको वे कैसे
समझेंगे ? वे जिस बाजारमें रहते हैं, उसी
बजारके भावोंको वे समझ सकते हैं । वे रुपयोंके बाजारमें ही रहते हैं । त्यागका भी एक विलक्षण, अलौकिक बाजार है, पर उसकी बात वही समझ
सकता है, जो उसी बाजारका हो । एक अच्छे महात्मा थे । उनसे मैंने अलग-अलग
समयपर दो प्रश्न किये । एक समय तो उनसे यह प्रश्न किया कि आप इतने ऊँचे दर्जेकी
बातें हमें सुनाते हो, पर क्या आप यह जानते हो कि हमलोग उस बातोंको ठीक समझते हैं ?
अगर हमलोग उन बातोंको न समझते हों, तो उन बातोंका मूल्य क्या हुआ ? उन्होंने उत्तर दिया कि मेरी बातें आकाशमें रहेंगी; जब कोई
समझदार होगा, पात्र होगा, उसके सामने वे प्रकट हो जायँगी । दूसरी बार मैंने
कहा कि भगवान्के घरमें पोल है, न्याय नहीं है
। उन्होंने पूछा‒कैसे ? तो मैंने कहा कि आप जैसे महात्माओंको हमारे सामने
ले आये । हमलोग कोई पात्र थे क्या ? भूखेको अन्न देना चाहिये, प्यासेको जल देना
चाहिये, ऐसे ही जो योग्य हों, उनको ऊँचे दर्जेकी बातें सुनानी चाहिये । आप जैसे तो
सुनानेवाले मिले और हमे-जैसे पात्र मिले, इससे मालूम होता है कि भगवान्के घर बड़ी
पोल है‒ अंधाधुंध सरकार है, तुलसी भजो निसंक । खीजै दीनो
परमपद, रीझै दीनी लंक ॥
एक बार मैंने कहा तो वे महात्मा बोले‒बेटी
कौन-सी कुँआरी रहती है ? अच्छा वर मिल जाय तो ठीक है, नहीं तो कैसा भी वर मिले,
विवाह तो करना ही पड़ता है । इस तरह पात्र न होनेपर भी
भगवान्की ऊँचे दर्जेकी बातें मिल जाती हैं । |