आपके पास धन है तो धनपर टैक्स लगेगा । आपके पास विद्या है
तो विद्यापर टैक्स लगेगा । इनको दूसरोंकी सेवामें लगाओ । सरकार तो अपना टैक्स कान
पकड़कर जबर्दस्ती ले लेगी । परन्तु जहाँ धर्मकी बात है,
आप प्रसन्न होकर दोगे तो ले लेगा, नहीं तो
आपपर कर्जा रहेगा । ब्रह्मचारी
यतिश्चैव पक्वान्नं स्वामिनावुभौ । तयोरान्नमदत्त्वा च भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् ॥ एक तो ब्रह्मचारी और संन्यासी, जो त्यागी हैं,
बनी बनायी रसोईके भागीदार हैं । भोजन बना हुआ हो तो इनको दे दो, बस । जो इनको अन्न
न देकर खुद भोजन कर लेता है, वह एक महीनेका चान्द्रायण व्रत करे, तब उसकी शुद्धि
होती है । इनको अन्न न देनेका पाप लगता है । जो खेतमें काम नहीं आया, दूकानमें काम नहीं आया, घरके
धंधेमें काम नहीं आया, उसको भोजन कराओ और न कराओ तो पाप लग जाय‒यह कोई न्याय है ?
हमने कमाया, हमने बनाया, हमने सब काम किया और उसने किसी भी काममें रत्तीभर भी
सहायता नहीं की, उसको भोजन न दें तो पाप लग जाय, कितना अन्याय है ? इसका कारण क्या है ?
जैसे आप धन इकट्ठा करते हो, वैसे ही ब्रह्मचारी और साधु भी धन इकट्ठा कर सकता है ।
ब्रह्मचारी और साधु पढ़े-लिखे भी होते हैं । कहीं घण्टाभर पढ़ा दें तो क्या उनको
रोटी नहीं मिलेगी ? आपमें जो योग्यता है, वह योग्यता क्या उनमें नहीं है ? अगर वे
धन इकट्ठा करेंगे तो वह धन आपके यहाँसे ही आयेगा, और कहाँसे आयेगा बताओ ? उन्होंने धन इकट्ठा नहीं किया तो वह धन आपके पास ही रहा और
कहाँ रहा ? अतः जिसने थोड़ा भी धन नहीं लिया, सब धन आपके पास ही रहने दिया, उसको
समयपर टुकड़ा तो दे दो ! नहीं देते हो तो पाप लगेगा । जो धनका संग्रह करता है, वह धन समुदायमेंसे ही आता है, उतनी कमी हो जाती है समुदायमें । पर जिसने धन लिया ही नहीं, वह धन किसके पास रहा, बताओ ? समुदायके पास ही तो रहा । जितने जीव जन्म लेते हैं, उनका प्रारब्ध पहले बनता है, पीछे शरीर मिलता है । उसके जीवन-निर्वाहके लिये अन्न, जल आदिका प्रबन्ध पहलेसे किया रहता है । अतः उसका कहीं-न-कहीं अन्न है, कहीं-न-कहीं जल है, कहीं-न-कहीं वस्त्र है । वह जी रहा है तो उसका उन अन्न, जल, वस्त्र आदिपर हक है । आपके पास जो आवश्यकतासे अधिक अन्न, जल आदि है, उसपर उसका हक लगता है । अतः वह सामने आये तो उसका हक उसे दे दो । |