।। श्रीहरिः ।।

                                                                        


आजकी शुभ तिथि–
  मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७८, बुधवार
 पारमार्थिक उन्नति धनके आश्रित नहीं


सत्-शास्त्रोंके प्रचारमें, सद्‌भावोंके प्रचारमें रुपये लग जायँ तो संसारमें इसके समान पुण्यका कोई काम है ही नहीं । कारण कि इनके प्रचारसे लोगोंके भीतरका अँधेरा दूर हो जाता है, आध्यात्मिक लाभ हो जाता है । इसमें जिसका पैसा लग गया, वह बड़ा भाग्यशाली है । ऋषिकेश‒स्वर्गाश्रमकी बात है । वैश्य जातिकी एक विधवा बहन थी । ससुरालवालोंने उसका धन दबा लिया था । वह वहाँ साधुओंको भिक्षा दिया करती । भिक्षा कैसे देती ? अपने घरमें सिलाईका काम करके पैसे कमाती और उससे अन्न खरीदकर रोटी बनाती और भिक्षा देती । शरणानन्दजी महाराजने कहा कि जैसे सेठ एक ही (जयदयालजी गोयन्दका) हैं, ऐसे ही सेठानी भी यहाँ है । लखपति सेठानियाँ तो बहुत हैं, पर उनको सेठानीकी पदवी नहीं मिली । सेठानीकी पदवी मिली उस विधवा बहनको जो सिलाई कर-करके पैसा कमाती और भिक्षा देती । वह सन्तोंकी दृष्टिमें सेठानी हुई । क्या रुपयोंसे कोई सेठानी होती है ? नहीं होती ।

महाभारतमें एक कथा आती है । एक बड़े अच्छे ऋषि थे । एक बार उनके यहाँ राजरानियाँ आयीं । उन्होंने देखा कि ब्राह्मणीके शरीरपर साधारण कपड़े हैं और माँग (सुहागका चिन्ह)-के सिवाय कोई गहना नहीं है तो वे ब्राह्मणीसे बोलीं कि आपलोग तो हमारे राजाके गुरु हो, प्रजाके गुरु हो, पर आपके शरीरपर कोई गहना न देखकर हमें बहुत बुरा लगता है । हमें बड़ी शर्म आती है । ब्राह्मणीको उनकी बात जँच गयी; क्योंकि स्त्रियोंको गहनोंका बड़ा शौक होता है । उसने पतिदेवसे कहा कि मेरेको गहना चाहिये । ऋषिने कहा‒ठीक है, ले आयेंगे गहना । जहाँतक बने, पतिको अपनी शक्तिके अनुसार स्त्रीकी न्याययुक्त इच्छाको पूरी करना चाहिये, यह उसका कर्तव्य है । ऋषि एक राजाके पास गये । राजाने पूछा कि महाराज, कैसे पधारे ? ऋषिने कहा कि मुझे सोना चाहिये । राजाने खजानेके हिसाबकी बही लाकर सामने रख दी और कहा कि महाराज, आप हिसाब देख लो । ऋषिने देखा कि राजाकी आय और व्यय बराबर है, खजानेमें कुछ नहीं है । ऋषिने कहा कि ठीक है, मैं दूसरे राजाके पास जाता हूँ । राजाने कहा कि मैं भी आपके साथ चलूँगा । वे दोनों वहाँसे चल दिये और तीन-चार राजाओंके पास गये, पर सब जगह आय-व्यय बराबर मिला, खजानेमें कुछ नहीं मिला । फिर पूछनेपर पता लगा कि अमुक राक्षसके पास धन मिलेगा । वे उस राक्षसके पास गये । राक्षसने उनसे कहा कि महाराज, बहुत धन पड़ा है, चाहे जितना ले जाओ । तात्पर्य क्या हुआ ? कि धन राजाओंके पास नहीं मिला, राक्षसके पास मिला ! आपने पूछा कि धनके बिना गुरु सेवा कैसे हो ? धार्मिक अनुष्ठान कैसे हो ? इसलिये यह बात बतायी । आपकी जो शंका है, वह दूर हो जाय तो बड़ी अच्छी बात है । परन्तु मेरेको बहम है कि वह शायद ही दूर हो; क्योंकि रुपया बड़ा प्रिय लगता है ।

सत्संग आदिमें कोई पैसा खर्च कर दे तो उसकी बड़ी महिमा होती है । लोग कहते हैं कि अमुक आदमीने बड़ा भारी पुण्य किया । परतु वास्तवमें वह बेचारा मारसे बच गया ! पुण्य करनेका अर्थ टैक्स देना । धनी आदमी जो अच्छे काममें धन खर्च करते हैं, वह उनका टैक्स है । टैक्स चुकानेकी महिमा नहीं होती । दस हजार रुपये टैक्स दे दिया तो यह नहीं कहते कि बड़ा दान कर दिया । टैक्स देकर वह मारसे बच गया, नहीं देता तो डंडा पड़ता । इसलिये दान-पुण्य करना कोई बड़ी बात नहीं है, यह तो जो धन रखते हैं, उसका टैक्स है । बड़ी बात तो यह है कि भगवान्‌के भजनमें लग जाओ, भगवान्‌की प्राप्ति कर लो । सगुण क्या है ? निर्गुण क्या है ? साकार क्या है ? निराकार क्या है ? बन्धन क्या है ? मुक्ति क्या है ?‒इन बातोंको ठीक तरहसे समझ लो ।