।। श्रीहरिः ।।

                                                                       


आजकी शुभ तिथि–
  मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७८, मंगलवार
 पारमार्थिक उन्नति धनके आश्रित नहीं


दातारं  कृपणं  मन्ये     मृतोऽप्यर्थं    मुञ्चति ।

अदाता  हि महात्यागी धनं हित्वा हि गच्छति ॥

अर्थात्‌ जो दान-पुण्य करता है, वह बड़ा कंजूस है; क्योंकि वह मरनेपर भी धनको छोड़ता नहीं, सब साथमें ले जाता है । परन्तु जो दान-पुण्य नहीं करता, वह बड़ा त्यागी है; क्योंकि वह सब धन ज्यों-का-त्यों ही यहाँ छोड़कर चला जाता है, साथमें कुछ भी नहीं ले जाता । धनके लोभी ऐसे त्यागी हुआ करते हैं !

गुरुकी सेवा, धर्मका अनुष्ठान रुपयोंके अधीन है‒ऐसी जिसकी धारणा है, वे मेरी बात समझ ही नहीं सकते । कारण कि वे रुपयोंमें ही एकदम रच-पच गये । मनमें, बुद्धिमें सब जगह रुपया-ही रुपया है । वह क्या समझे बेचारा ? ‘मायाको मजूर बंदो कहा जाने बंदगी ।’ एक सन्तके पास कोई धनी आदमी आया और उसने एक दुशाला भेंट किया । सन्तने कहा‒भाई, हमें जरूरत नहीं है, क्या करेंगे ? तो उसने कहा कि महाराज, काम आ जायेगा । सन्तने उससे पूछा कि बात क्या है ? किसलिये देते हो ? तब उसने कहा‒महाराज, आपको देनेसे हजार गुना पुण्य होगा, इसलिये देता हूँ । ऐसा सुनकर सन्तने कहा‒मेरेपर एक हजारका कर्जा हुआ; अतः अभी एक तो तू ले ही जा, बाकी नौ सौ निन्यानबेका कर्जा मेरेपर रहा । ऐसा सुनकर वह आदमी चुपचाप दुशाला लेकर चला गया ! एक ले लें और बदलेमें हजार देना पड़े‒इतना कर्जा कौन उठाये ? ये काँटा (तौल) काटनेवाले और ब्याज लेनेवाले भी इतना तो नहीं लेते ! धनको ही ऊँचा दर्जा दे रखा है । धन देनेमें, दान-पुण्य करनेमें भी भाव लेनेका ही रहता है । अब ऐसे बेसमझको कौन समझाये ? मनुष्यमात्रमें ताकत है कि अगर वह निष्पक्ष होकर सरल हृदयसे समझना चाहे तो बड़ी-बड़ी तात्त्विक बातोंको भी समझ सकता है । इतनी समझ मनुष्यको भगवान्‌ने दी है । परन्तु मनुष्यने अपनी सब समझ रुपयोंमें लगा दी, और रुपयोंमें ही नहीं, रुपयोंकी संख्या बढ़ानेमें लगा दी । इतना ही नहीं, अपनी समझ पापोंमें, चालाकियोंमें लगा दी कि किस तरह इन्कमटैक्सकी चोरी करें, किस तरह सेलटैक्सकी चोरी करें, आनेवालोंको कैसे ठगें, आदि-आदि । जितनी बुद्धिमानी थी, वह सब-की-सब पाप बटोरनेमें लगा दी । अन्तःकरण महान्‌ अशुद्ध हो जाय, आगे नरकोंमें जायँ, चौरासी लाख योनियोंमें दुःख भोगें‒इसमें अपनी समझदारी लगा दी । लोग कहते हैं‒वाह-वाह यह लखपति बन गया, करोड़पति बन गया । बड़ा होशियार, चलता पुर्जा है । यह पुर्जा चलता (जन्मता-मरता) ही रहेगा, बस । अब इसको विश्राम नहीं मिलेगा, कल्याण नहीं होगा । पर इस बातको समझे कौन ?

मैं पूरबियो पूरब देस को, म्हारी बोली लखे नहिं कोय ।

म्हारी  बोली  सो  लखे,   जो  ध  पूरबलो  होय ॥

मैं तो पूरब देशमें रहनेवाला हूँ । मेरी बोलीको यहाँ कोई नहीं समझता । मेरी बोली (भाषा) वही समझ सकता है, जो पूरब देशका हो, अनादि परमात्मतत्त्व ‘पूरब’ है । पूरब देशकी बोली यहाँ रहनेवाला कैसे समझें ? जो रुपयोंका गुलाम हैं, वे पारमार्थिक बातें कैसे समझें ? कहते हैं कि धर्मका अनुष्ठान पैसोंसे होगा, सत्संगका आयोजन पैसोंसे होगा, तो जिसको गर्ज हो, वह पैसा लगाये । गायका दूध चाहिये तो गायको चारा आदि दो । अगर दूध नहीं चाहिये तो गायको चारा आदि मत दो । ऐसे ही सत्संग सुनना हो तो उसके आयोजनमें पैसे लगाओ, नहीं सुनना हो तो कोई जरूरत नहीं । सन्तोंको क्या गर्ज है ? पैसोंके बिना आपका काम नहीं चलता, पर सन्तोंका खूब अच्छी तरहसे चलता है ।