।। श्रीहरिः ।।

                                                                      


आजकी शुभ तिथि–
  मार्गशीर्ष शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०७८, सोमवार
 पारमार्थिक उन्नति धनके आश्रित नहीं


पारमार्थिक उन्नति धनके अधीन नहीं है‒यह बात मेरे भीतर ठीक बैठी हुई है । इस विषयमें मैंने खूब अध्ययन किया है । जैसे रुपया कमानेके लिये कलकत्ता जाते हैं । वहाँ रुपये कमा लेते हैं तो हम अपनी यात्रा सफल मान लेते हैं । ऐसे ही कथा करते हैं और उसमें रुपये आ जाते हैं तो अपनी कथाको सफल मान लेते हैं । यह उनकी बात हुई, जो रुपयोंके गुलाम हैं । परन्तु कहीं अच्छे सन्त-महात्मा हों और उनकी सेवामें भोजन दिया जाय, कपड़ा दिया जाय तो आदमी प्रसन्न होता है कि आज मेरा भोजन तथा कपड़ा सफल हो गया ! इसलिये सज्जनो ! धन देनेसे सफल होता है, लेनेसे नहीं होता । जो लेनेसे सफलता मानते हैं, वे बेचारे समझते ही नहीं ! रुपया आनेसे कोई फायदा नहीं है । मर जाओगे तो क्या एक कौड़ी भी साथ चलेगी ? परन्तु धर्मका अनुष्ठान किया है, भगवान्‌का भजन किया है, गुरुकी प्रसन्नता ली है तो यह सब धन यहाँ नहीं रहेगा, साथ चलेगा । हृदयसे दूसरोंको सुख पहुँचाया जाय, धर्मका अनुष्ठान किया जाय इसमें आपका जितना पैसा लग गया, वह सब सफल हो गया ।

सत्संग-भजनमें रुपया लग जाय, तो बड़े भाग्यकी बात है, नहीं तो अच्छे काममें पापीका पैसा लग नहीं सकता‒‘पापी रो धन पर ले जाय, कीड़ी संचै तीतर खाय ।’ उस धनको डाकू ले जायँगे, इन्कम टैक्सवाले ले जायँगे, डाक्टर ले जायँगे, वकील ले जायँगे । इनमें बेशक हजारों रुपये खर्च हो जायँ, पर सत्संग-भजन आदिमें वे खर्च नहीं कर सकेंगे । उनका पैसा भी खराब है और भीतरका भाव भी खराब है; अतः वे कैसे खर्च कर सकते हैं ? मैं तो यह बात आपको समझानेमें अपनेको असमर्थ मानता हूँ; परन्तु बात वास्तवमें ऐसी ही है ।

आपकी, आपके पैसोंकी, आपकी वस्तुओंकी सफलता होती है देनेसे । खर्च करनेसे ही पैसा आपके काम आयेगा, संग्रहसे नहीं । संग्रहसे तो अभिमान ही बढ़ेगा । अभिमानके भीतर सम्पूर्ण आसुरी-सम्पत्ति, सम्पूर्ण दुर्गुण-दुराचार रहते हैं‒‘संसृत मूल सूलप्रद नाना । सकल सोक दायक अभिमाना ॥’ (मानस ७/७४/३) यह अभिमान महान्‌ नरकोंमें ले जानेवाला होगा । परन्तु संग्रह करना अच्छा लगता है और खर्च करना बुरा लगता है ! अरे भाई ! रुपये बढ़िया नहीं है, उनका सदुपयोग बढ़िया है ।

श्रोता‒सदुपयोग भी तब करें, जब पासमें रुपया हो । रुपया न हो तो सदुपयोग कैसे करें ?

स्वामीजी‒जिसके पास रुपये नहीं है, उसपर सदुपयोगकी जिम्मेवारी है ही नहीं । मालपर जकात लगती है । माल ही नहीं तो जकात किस बातकी ? इन्कम ही नहीं तो टैक्स किस बातका ? गरीब आदमी जितना पुण्य कर सकता है, उतना धनी आदमी कभी नहीं कर सकता । अच्छे-अच्छे सन्त भिक्षाके लिये जाते हैं, तो अगर वे गरीब आदमीके घर पहुँच जायँ और वह सन्तको रोटीका टुकड़ा भी दे दे तो पुण्य हो जायगा । परन्तु धनी आदमीके घर लाठी लिये चौकीदार बैठा रहता है और कहता है‒‘ओ बाबा, कहाँ जाते हो; यहाँ नहीं, आगे जाओ ।’ बेचारे धनी आदमियोंके भाग्य फूट गये ! आप कहते हो कि भाग्यवान् हैं तो किस बातमें भाग्यवान् हैं ? चोरोंमें जो सरदार होता है वह साहूकार होता है क्या ? वे बड़े हैं तो किस बातमें बड़े हैं ? क्या नरकोंमें जानेके लिये, डूबनेके लिये बड़े हैं ? वास्तवमें बड़ा तो वह है, जो अपना और दूसरोंका भी कल्याण कर दे । बड़ा वही है, जिसने साथ चलनेवाले धनका संग्रह कर लिया है । परन्तु जिसका धन यहीं रह जाता है और खुद खाली हाथ चला जाता है, वह बड़ा कैसे हुआ ?