।। श्रीहरिः ।।

                                                                     


आजकी शुभ तिथि–
  मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०७८, रविवार
  पारमार्थिक उन्नति धनके आश्रित नहीं


आज मनुष्योंके मनमें धनका महत्त्व बैठा हुआ है । वह हरेक जगह समझता है कि धनसे ही कल्याण होता है । अरे भाई ! धन एक जड़ चीज है, इससे जड़ चीजें ही खरीदी जा सकती हैं, परमात्मा नहीं खरीदे जा सकते । अगर परमात्मा धनसे खरीदे जाते, तो हमारे-जैसोंकी क्या दशा होती ? बड़ी मुश्किल हो जाती ! पर ऐसी बात नहीं है ।

श्रोता‒धर्मका अनुष्ठान तो धनसे ही होता है ?

स्वामीजी‒बिलकुल गलत है । रत्तीभर भी सही नहीं, परन्तु धनके लोभीको यही दिखता है; क्योंकि धनमें बुद्धि बेच दिया, अपनी अक्लकी बिक्री कर दी । अब अक्लके बिना वे क्या समझें ? अक्ल होती तो समझते । शास्त्रमें आया है‒

धर्मार्थं यस्य वित्तेहा वरं तस्य निरीहता ।

प्रक्षालनाद्धि पंकस्य   दूरादस्पर्शनं वरम् ॥

अर्थात्‌ जो मनुष्य धर्मके लिये धनकी इच्छा करता हो, उसके लिये धनकी इच्छाका त्याग करना ही उत्तम है । कारण कि कीचड़ लगाकर धोनेकी अपेक्षा उसका स्पर्श न करना ही उत्तम है । राजा रन्तिदेवका पुण्य बहुत बड़ा माना जाता है । उनके सामने ब्रह्मा, विष्णु, महेश‒सब प्रकट हो गये । बात क्या थी ? गरीबोंको दुःखी देखकर उन्होंने अपना सर्वस्व दान कर दिया था । एक बार उनको और उनके परिवारको अड़तालीस दिनतक कुछ भी खाने-पीनेको नहीं मिला । उनचासवें दिन उनको थोड़ा घी, खीर, हलवा और जल मिला । वे अन्न-जल ग्रहण करना ही चाहते थे कि एक ब्राह्मण अतिथि आ गया । रन्तिदेवने उस ब्राह्मण देवताको भोजन करा दिया । ब्राह्मणके चले जानेके बाद रन्तिदेव बचा हुआ अन्न परिवारमें बाँटकर खाना ही चाहते थे कि एक शूद्र अतिथि आ गया । रन्तिदेवने बचा हुआ खाना, कुछ अन्न उसे दे दिया । इतनेमें ही कुत्तोंको साथ लेकर एक और मनुष्य वहाँ आया और बोला कि ये कुत्ते बहुत भूखे हैं, कुछ खानेको दीजिये । रन्तिदेवने बचा हुआ सारा अन्न कुत्तोंसहित उस अतिथिको दे दिया । अब केवल एक मनुष्यके पीने लायक जल बाकी बचा था । उसको आपसमें बाँटकर पीना ही चाहते थे कि एक चाण्डाल आ पहुँचा और बड़ी दीनतासे बोला कि महाराज, मैं बड़ा प्यासा हूँ, मुझे जल पिला दीजिये । रन्तिदेवने वह बचा हुआ जल भी उस चाण्डालको पिला दिया । उनकी परीक्षासे बड़े प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों उनके सामने प्रकट हो गये ! अगर भगवान्‌की प्राप्ति धनसे होती तो जल पिलानेमात्रसे वे कैसे प्रकट हो जाते ?

धर्मका अनुष्ठान, पारमार्थिक उन्नति धनपर बिलकुल भी अवलंबित नहीं है । जो इनको धनके आश्रित मानते हैं, वे धनके गुलाम हैं, कौड़ीके गुलाम हैं । पर वे इस बातको समझ ही नहीं सकते ! छोटे बालकके सामने एक सोनेकी मुहर रखी जाय और एक बताशा रखा जाय तो बताशा ले लेगा, मुहर नहीं लेगा । आप समझेंगे कि वह भोला है, पर अपनी दृष्टिसे वह भोला नहीं है, प्रत्युत समझदार है । बताशा तो मीठा होता है, और खानेके काम आता है, पर मुहरका वह क्या करे ? ऐसे ही ये लोग धन-रूपी मीठा बताशा तो ले लेते हैं, पर भगवान्‌का भजन, धर्मका अनुष्ठान, परमात्माकी प्राप्ति‒इन कीमती रत्नोंको फालतू समझ लेते हैं । वे समझते हैं कि इतना बड़ा पाण्डाल बनाना, बिछौना बिछाना, लाउडस्पीकर लगाना आदि सब काम धनसे ही होते हैं । यह बिलकुल मूर्खताकी बात है; इसमें रत्तीभर भी सच्चाई नहीं है; किन्तु धनका लोभी इस बातको समझ ही नहीं सकता । मेरेमें ताकत नहीं है कि मैं यह बात आपको समझा दूँ, और आप सब इकट्ठे होकर भी मेरेको यह नहीं समझा सकते कि पारमार्थिक उन्नति धनके अधीन है ।