श्रोता‒गुरुकी सेवा
कैसे की जाय ? स्वामीजी‒गुरु किसको कहते हैं ? गुरु-गीतामें आया है‒ गुकारश्चान्धकारो हि रुकारस्तेज उच्यते । अज्ञानग्रासकं
ब्रह्म गुरुरेव न
संशयः ॥ तात्पर्य है कि जो अन्तःकरणके अन्धकारको दूर कर दे, उसका
नाम ‘गुरु’ है । बाहरका अन्धकार तो सूर्य दूर कर देता है, पर भीतरका अन्धकार गुरु दूर करता है ।
गुरुका संग करके, उनकी आज्ञाका पालन करके अपने भीतरका
अन्धकार दूर कर ले‒यही गुरुकी वास्तविक सेवा है और इसीसे गुरु प्रसन्न होते हैं ।
हम शरीरसे उनको सुख दें तो वह भी अच्छा है; परन्तु वह
गुरु-सेवा नहीं है, प्रत्युत एक शरीरकी सेवा है । गुरु शरीर नहीं होता । शास्त्रोंमें आया है कि गुरुमें
मनुष्य-बुद्धि करना और मनुष्यमें गुरु-बुद्धि करना पाप है, अन्याय है । कारण कि
गुरु अमर होता है, जब कि मनुष्य मरनेवाला होता है । अगर गुरु भी मरनेवाला होता तो
वह शिष्यको अमर कैसे बनाता ? गुरुकी असली सेवा है‒अमरताकी
प्राप्ति कर लेना । जैसे, परीक्षा लेनेवाला आता है और विद्यार्थी उसके
सवालोंका ठीक जवाब देता है, तो उससे विद्या पढ़ानेवाले गुरुजी प्रसन्न हो जाते हैं ।
ऐसे ही जब शिष्य परमात्मतत्त्वको प्राप्त कर लेता है, तब उससे पारमार्थिक मार्ग
दिखानेवाले गुरुजी प्रसन्न हो जाते हैं । गुरुका प्रसन्न होना ही उनकी सेवा है । आप रोटीसे, कपड़ेसे, मकानसे, सवारीसे जिस
किसी तरह भी गुरुको सुख पहुँचाते हैं‒यह भी ठीक है; परन्तु ये चीजें शरीरतक ही पहुँचती हैं, गुरुतक नहीं । सन्त-महात्मा हमारेसे तभी प्रसन्न होते हैं, जब
हमारा जीवन महान् पवित्र, निर्मल हो जाये और हमारा कल्याण हो जाय । जैसे हृष्ट-पुष्ट बालकको देखकर माँ प्रसन्न हो जाती है,
ऐसे ही आपमें ज्ञान बढ़ा हुआ देखकर सन्त-महात्मा प्रसन्न हो जाते हैं । आप भले ही उन्हें रोटीका टुकड़ा भी मत दो, उनकी कुछ भी सेवा मत
करो; परन्तु उनकी बातोंको धारण करके वैसे ही बन जाओ तो वे बड़े प्रसन्न हो जायँगे;
क्योंकि यही उनकी असली सेवा है ।
जड़ चीजोंसे गुरु-तत्त्वकी सेवा नहीं होती । छोटे बच्चेको
रेशमकी चमकीली टोपी पहना दी जाय तो वह बहुत राजी हो जाता है । जब वह पिताजीकी
गोदमें बैठता है, तब वह उस टोपीको पिताजीके सिरपर रख देता है और समझता है कि मैंने
पिताजीको बहुत बढ़िया चीज दे दी । परन्तु वह टोपी पिताजीके लिये ठीक है क्या ?
पिताजी वह टोपी पहने हुए चलेंगे क्या ? ऐसे ही जो लोग सन्तोंको भेंट चढ़ाते हैं,
कपड़ा देते हैं, बढ़िया-बढ़िया भोजन कराते हैं, वे मानो उनको रेशमी चमकदार टोपी
पहनाते हैं ! यह उनका बचपना ही है । यह सन्तोंकी असली सेवा नहीं है । सन्तोंकी असली सेवा है‒अपना
कल्याण करना । हम अपना कल्याण कर लें तो वे प्रसन्न हो जायँगे, उनका
प्रयत्न सफल हो जायगा, उनका कहना-सुनना सफल हो जायगा । |