मैं यह नहीं कहता कि आप रुपये छोड़ दो, फेंक दो या नष्ट कर
दो । पर उन रुपयोंके रहते खुद तंगी भोगते हो, आवश्यक चीज भी नहीं लेते; जहाँ जरूरी
है, वहाँ खर्च भी नहीं करते तो फिर रुपये क्या काम आये ? होश
आना चाहिये कि भगवान्ने दिये हैं तो उन रुपयोंको अच्छे-से-अच्छे काममें खर्च करें
। जीते-जी अपने और दूसरोंके काममें लगायें । केवल कंजूसी करके हम संख्या ही
बढ़ाते चले जायँगे तो क्या होगा ? अच्छा-से-अच्छा मौका आनेपर भी खयाल रहेगा कि कोई
दूसरा खर्च कर दे तो अच्छा है; अपना खर्च न हो तो अच्छा है । सज्जनो ! आप मेरी
बातकी तरफ ध्यान दें । जिसे कोई दान-पुण्यका काम हुआ, उस
समय भी यह भाव रहे कि कोई दूसरा खर्च कर दे तो अच्छा है, अपनी आफत टले तो फिर उन
रुपयोंका क्या करोगे ? जैसे व्यापारी आदमी देखता है कि इतने सस्तेमें
अधिक-से-अधिक ले लें; क्योंकि बाजारका भाव तो महँगा होनेवाला है और अमुक-अमुक जगह
तेजी आ ही गयी है, पर यहाँ सस्ता है, तो ब्याजमें भी रुपया लेकर अधिक-से-अधिक ले
लें तो अच्छा है । इस प्रकार जैसे लेनेका लोभ लगता है,
वैसे खर्च करनेका लोभ नहीं लगता, जो कि हमारे साथ चलेगा । जितना आप खर्च कर दोगे,
शुभ काममें लगा दोगे, उतना आपके साथ चलेगा । अतः यह लोभ लगना चाहिये कि
अच्छे-से-अच्छे काममें मैं खर्च करूँ । एक-एकको ऐसा कहना चाहिये कि यहाँ तो
मैं खर्च करूँगा । बारी नहीं आये; क्योंकि ऐसा मौका मिलना बड़ा मुश्किल होता है । गीताप्रेसके संस्थापक और संचालक श्रीजयदयालजी गोयन्दकाने एक
बार यह बात कही कि रुपये
कमाना हम कठिन नहीं समझते, रुपयोंको अच्छे काममें लगाना कठिन समझते हैं ।
दूसरे भाई-बन्धु आड़ लगा देते हैं, भीतरका लोभ भी आड़ लगा देता है कि इतना खर्च
करनेकी क्या जरूरत है ? इतनेसे ही काम चल जायगा । यह सोचते ही नहीं कि क्या करेंगे
पैसोंका ? छोड़कर मरेंगे तो दस-बीस हजार कम छोड़कर मरेंगे,
यही तो होगा और क्या होगा ? यह तो है नहीं कि सब खर्च हो जायँगे, कंगले हो
जायँगे । जो धन यहीं रह जायगा या आ करके चला जायगा, उससे कोई पुण्य नहीं होगा, उससे अन्तःकरण निर्मल नहीं होगा । परन्तु अच्छे-से-अच्छे काममें धन खर्च कर देंगे तो चित्त प्रसन्न
होगा, पुण्य होगा, सन्तोष होगा कि इतने पैसे तो अच्छे काममें लग गये ! अब जो बाकी
रहे, वे अच्छे काममें कैसे लगें ? इसका विचार करना है । एक मार्मिक बात है कि वास्तवमें
वस्तुकी महिमा नहीं है । महिमा है, उसके उपयोगकी । कितनी ही वस्तुएँ पासमें
हों, यदि उनका उपयोग नहीं किया तो वे किस कामकी ? जैसे मैंने पहले आपको बताया ही
है कि एक आदमीने बक्सेमें सोना भर रखा है और हमने एक बक्सेमें पत्थर भर रखे हैं ।
दोनोंका भार बराबर है । खर्च करनेसे तो सोना बढ़िया है, पर खर्च न किया जाय तो सोने
और पत्थरके भारमें क्या फर्क है ? काममें लेनेसे तो सोना बहुत कीमती है, पत्थर
कीमती नहीं है । परन्तु काममें लें ही नहीं तो पासमें चाहे सोना हो, चाहे पत्थर हो, क्या
फर्क है । हाँ, इतना फर्क जरूर है कि पासमें सोना पड़ा रहनेसे चिन्ता
अधिक हो जायगी कि कोई चुरा न ले, किसीको पता न लग जाय ! मनमें चिन्ता और खलबली
होनेके सिवाय और क्या फायदा होगा ? इस बातको आप गहरा
उतरकर, शान्तिसे, निष्पक्ष होकर ठीक समझें । सज्जनो ! समय बड़ी तेजीसे जा रहा है, मौत नजदीक आ
रही है, एक दिन सब पदार्थोंके साथ पड़ाकसे सम्बन्ध टूट जायगा । इसलिये बड़ी
सावधानीसे समयको और पैसोंको अच्छे-से-अच्छे काममें लगाओ । नारायण ! नारायण
!! नारायण !!! ‒ ‘वास्तविक सुख’ पुस्तकसे |