यह प्रत्यक्ष बात है कि हमारे शरीर जब जन्मे थे, तब
छोटे-छोटे थे, आज इतने बड़े हो गये ! किसी एक वर्षमें ये शरीर इतने बड़े हुए हों,
ऐसी बात नहीं है । ये प्रत्येक वर्षमें बदले हैं । जो प्रत्येक वर्षमें बदलते हैं,
वे प्रत्येक महीनेमें बदलते हैं । ऐसा नहीं कि ग्यारह महीनोंमें तो नहीं बदले और
बारहवें महीनेमें बदला गये हों । जो प्रत्येक महीनेमें बदलते हैं, वे प्रत्येक
दिनमें बदलते हैं । ऐसा नहीं कि उन्तीस दिनोंमें तो वैसे ही रहे और तीसवें दिन बदल
गये । जो प्रत्येक दिनमें बदलते हैं, वे प्रत्येक घंटेमें बदलते हैं । ध्यान दें,
पहले घंटेमें जो शरीर हैं, वे दूसरे घंटेमें वैसे नहीं हैं । नहीं तो एक दिनमें
कैसे बदलते ? जो घंटेभरमें बदलते हैं, वे उन्सठ मिनटमें न बदलकर साठवें मिनटमें
बदल जायँ‒ऐसा नहीं होता । जो प्रत्येक मिनटमें बदलते हैं, वे प्रत्येक सेकण्डमें
बदलते हैं । इससे क्या सिद्ध हुआ ? कि केवल
बदलना-ही-बदलना है । बदलकर किधर जा रहे हैं ? मृत्युकी ओर जा रहे हैं; बिलकुल
निःसन्देह बात है । जितने हम जी गये, उतने हम मर गये ! अब आगे कितनी आयु बाकी है,
इसका तो पता नहीं है, पर जितने वर्ष बीत गये, उतने वर्ष हमारी आयुसे कम हो गये,
मौत उतनी नजदीक आ गयी‒इसमें कोई सन्देह नहीं है । जीवन मृत्युकी तरफ जा रहा है ।
यह शरीर अभावकी तरफ जा रहा है । एक दिन इसका सर्वथा अभाव हो जायगा । आज जो ‘है’, एक दिन वह ‘नहीं’ हो
जायगा । परन्तु चाहना यह रखते हैं कि भोग-पदार्थोंका संग्रह कर लें, रुपया इकठ्ठा
कर लें, कितनी भूलकी बात है यह ।
जरा ध्यान दें । रुपया कमाना और उसे अच्छे काममें लगाना दोष
नहीं है; पर उसको जमा करनेकी जो एक धुन है, वही दोष है । इसका
अर्थ यह नहीं है कि रुपये इकठ्ठे नहीं होने देना है । आवश्यकता पड़नेपर भी खर्च न
करें‒यह तात्पर्य भी नहीं है । बहन-बेटी है, ब्राह्मण है, कोई रोगी है,
भूखा है, नंगा है, और अभावग्रस्त है, उसके लिये खर्च
नहीं करना गलती है । संग्रह करके आखिर करोगे क्या ? आवश्यकता पड़नेपर जब अपने लिये भी खर्च नहीं करते और दूसरोंके
लिये भी खर्च नहीं कर सकते तो वह संग्रह किस कामका ? यह शरीर तो रहेगा नहीं । जब
शरीरका अभाव हो जायगा, तब वे रुपये क्या काम आयेंगे ? अगर रुपयोंको
न्यायपूर्वक कमाते हैं और उनको आवश्यक काममें खर्च करते हैं, तब तो होश है, नहीं
तो रुपयोंके
लोभमें बेहोशी आ जाती है । रुपयोंका इतना मोह हो जाता है कि रोकड़में लाख
रुपये हो जाय तो अब मनुष्य उन लाख रुपयोंको छोड़ना नहीं चाहता । कभी भूलसे हजार-दो
हजार खर्च हो जायँ तो बड़ा दुःख लगता है कि मूलमेंसे खर्च कर दिया ! अगर लड़का खर्च
कर देता है तो उसपर गुस्सा आता है कि ‘तुम कोई मनुष्य हो ? मूल खाओगे तो कितने दिन
काम चलेगा ?’ रोटी-कपड़ेकी तंगी तो भोग लेंगे, पर मूलको खर्च नहीं करेंगे, जिससे वह
ज्यों-का-त्यों सुरक्षित रहे । आपसे पूछा जाय कि मूलको क्या करोगे ? शरीर जा रहा है, मौत प्रतिक्षण नजदीक आ रही है, ये रुपये
पड़े-पड़े क्या काम करेंगे ? |