परमात्मा कभी
हमारेसे अलग नहीं होते । उनको हम जानें तो हमारे साथ हैं, हम न जानें तो हमारे साथ
हैं; हम उनके सम्मुख हो जायँ तो हमारे साथ हैं, उनसे विमुख रहें तो हमारे साथ हैं ।
जहाँ मैं हूँ, वहाँ भी परमात्मा हैं । जो ‘हूँ’ है, वह ‘है’ (परमात्मा)-के साथ है ।
इस ‘हूँ’ को शरीरके साथ मान लेते हैं‒यह गलती है । परमात्मा यहाँ हैं, अभी हैं,
मेरेमें हैं, मेरे हैं‒इस बातको पकड़ लो । ये बातें सीखनेके लिये और सुनने-सुनानेके
लिये नहीं हैं । ये पकड़नेकी, स्वीकार करनेकी बातें हैं । संसारकी बातोंमें उलझ
करके उनमें भी दो बातें कर लेते हो अर्थात् सुख और दुःख, अनुकूल और प्रतिकूल‒ये
दो मान्यताएँ कर लेते हो, इससे बड़ा भारी बन्धन होता है । इन दो चीजोंसे अर्थात्
द्वन्द्वोंसे रहित होनेसे मनुष्य सुखपूर्वक
बन्धनसे मुक्त हो जाता है‒‘निर्द्वन्द्वो हि
महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते’ (गीता ५/३) । इसलिये द्वन्द्वोंमें नहीं
फँसना चाहिये । संसारकी किसी
समाज-सम्बन्धी बातको लेकर कोई कहता है कि यह ठीक है और कोई कहता है कि यह बेठीक
है, तो वास्तवमें वे दोनों ही बेठीक हैं; क्योंकि दोनोंसे मुक्ति तो होती नहीं !
केवल संसारमें फँसनेका तरीका है । संसारकी दो बातोंको लेकर उनमेंसे किसी एक बातको
पकड़ लेते हैं तो बड़ी भारी हानि होती है । इससे कल्याण नहीं होता । व्यवहारमें जो
बात ठीक है, उसको कर लें, पर उसको पकड़ें नहीं । वह बात ठहरेगी नहीं, रहेगी नहीं और
परमात्मा रहेंगे । परमात्माका सम्बन्ध कभी छूटेगा नहीं । संसारके साथ हमारा
सम्बन्ध है ही नहीं । उस संसारमें अच्छा और मन्दा क्या, ठीक और बेठीक क्या,
पूरा-का-पूरा बेठीक है । अब ये कहते हैं कि हम तो गृहस्थी हैं । अगर गृहस्थी हो तो
अच्छा काम करो, फँसते क्यों हो ? काम गृहस्थीको भी करना है और साधुको भी करना है,
पर फँसना नहीं है । मान और अपमान‒दोनोंको बराबर समझना है । ये दोनों ही तुल्य (समान)
हैं‒‘मानापमानयोस्तुल्यः’ (गीत १४/२५) । जिस
जातिका मान है, उसी जातिका अपमान है । ये दोनों ही त्याज्य हैं । न मान ग्राह्य है
और न अपमान ग्राह्य है । इसमें क्या राजी और
क्या नाराज होवें ? ‘किं भद्रं किमभद्रं वा’
(श्रीमद्भागवत ११/२८/४)‒क्या ठीक और क्या बेठीक ? गीतामें आया है‒‘सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ’ (गीता २/३८) । तो
‘समे कृत्वा’ का अर्थ क्या हुआ ? कि जय हो गयी तो
क्या और पराजय हो गयी तो क्या ? लाभ हो जाय तो
क्या और हानि हो गयी तो क्या ? सुख हो तो क्या और दुःख हो तो क्या ? ये तो
मिटनेवाले हैं । रहनेवाली न जय है, न पराजय है, न लाभ है, न हानि है, न सुख है, न
दुःख है । वक्तपर जो काम आया, उसे निर्लेप होकर कर दिया, बस । अतः संसारके
संयोग-वियोगको महत्त्व मत दो । फिर यह सत्संगवाली स्थिति हो जायगी । परन्तु
संसारके संयोग-वियोगको महत्त्व दोगे तो सत्संगकी बात स्थायी होनेके लिये आपको वक्त
ही नहीं मिलेगा ! भगवान्ने भी
आरम्भमें ही कह दिया‒‘आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व’
(गीता २/१४) अर्थात् ये सांसारिक चीजें आने-जानेवाली और अनित्य हैं, इनको
तुम सह लो । सहनेका अर्थ है कि तुम विकृत मत होओ, राजी-नाराज मत होओ । ये सांसारिक
पदार्थ जिसको व्यथा नहीं पहुँचाते, वह मुक्तिका पात्र होता है‒‘यं ही न व्यथयन्त्येते.....सोऽमृततत्वाय कल्पते’ (गीता २/१५)
और जिसको ये व्यथा पहुँचाते हैं, उसकी मुक्ति नहीं होती । मान अच्छा है, अपमान
खराब है‒इसको पकड़ लिया तो मुक्तिसे वंचित रह गये । ये मान-अपमान आदि आपको धोखा
देनेवाले हैं । ये तो रहेंगे नहीं, पर आपको मुक्तिसे वंचित कर देंगे । इसलिये
ठीक-बेठीक सब त्याज्य है, छोड़नेकी चीज है । हम इनसे छूटें कैसे ? कि हम सम रहें । आप
अपनी तरफ खयाल करें । मानके समय आप दूसरे और अपमानके समय आप दूसरे होते हो क्या ?
इसलिये इनको न देखकर अपनेमें स्थित रहो, ‘स्व’ में
स्थित रहो‒‘समदुःखसुखः स्वस्थः’ (गीता १४/२४) । इस
‘स्व’ में स्थितिको ही सत्संगके द्वारा पकड़ना है ।
सत्संगकी बातोंका सुख नहीं लेना है । नारायण ! नारायण !! नारायण !!! ‒ ‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे |