श्रीमद्भगवद्गीताका
एक श्लोक है‒ नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । उभयोरपि
दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ (२/१६) ‘असत्का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत्का अभाव
विद्यमान नहीं है । तत्त्वदर्शी महापुरुषोंने इन दोनोंका ही अन्त अर्थात् तत्त्व
देखा है, अनुभव किया है ।’ (१) इस श्लोकके पूर्वार्धमें आये ‘नासतो
विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’‒इन सोलह
अक्षरोंमें सम्पूर्ण वेदों, पुराणों, शास्त्रोंका तात्पर्य भरा हुआ है ! चिन्मय
सत्तामात्र ‘सत्’ है आर सत्ताके सिवाय जो कुछ भी प्रकृति और प्रकृतिका कार्य
(क्रिया और पदार्थ) है, वह सब ‘असत्’ अर्थात् जड़ और परिवर्तनशील है । देखने,
सुनने, समझने, चिन्तन करने, निश्चय करने आदिमें जो कुछ भी आता है, वह सब ‘असत्’
है । जिसके द्वारा देखते, सुनते, चिन्तन आदि करते हैं, वह भी ‘असत्’ है और
दीखनेवाला भी ‘असत्’ है । असत् और सत्‒इन दोनोंको ही प्रकृति और पुरुष, क्षर और
अक्षर, शरीर और शरीरी, अनित्य और नित्य, नाशवान् और अविनाशी आदि अनेक नामोंसे कहा
गया है । पूर्वोक्त श्लोकार्ध (सोलह अक्षरों)-में तीन धातुओंका प्रयोग हुआ है‒ (१)
‘भू सत्तायाम्’‒जैसे, ‘अभावः’
और ‘भावः’ । (२) ‘अस् भुवि’‒जैसे, ‘असतः’ और
सतः’ । (३)
‘विद्
सत्तायाम्’‒जैसे, ‘विद्यते’ और ‘न विद्यते’ । यद्यपि इन तीनों धातुओंका मूल अर्थ एक ‘सत्ता’ ही है, तथापि सूक्ष्म रूपसे ये
तीनों अपना स्वतन्त्र अर्थ भी रखते हैं; जैसे‒‘भू’ धातुका अर्थ ‘उत्पत्ति’
है, ‘अस्’ धातुका अर्थ ‘सत्ता’ (होनापन) है और ‘विद्’ धातुका अर्थ
‘विद्यमानता’ (वर्तमानकी सत्ता) है । (२) ‘नासतो विद्यते भावः’ पदोंका अर्थ है‒‘असतः भावः न विद्यते’ अर्थात् असत्की सत्ता विद्यमान नहीं
है, प्रत्युत असत्का अभाव ही विद्यमान है । असत् वर्तमान नहीं है । असत्
उपस्थित नहीं है । असत् प्राप्त नहीं है । असत् मिला हुआ नहीं है । असत् मौजूद
नहीं है । असत् कायम नहीं है । जो वस्तु उत्पन्न होती
है, उसका नाश अवश्य होता है‒यह नियम है । उत्पन्न होते ही तत्काल उस
वस्तुका नाश शुरू हो जाता है । उसका नाश इतनी तेजीसे होता है कि उसको दो बार कोई
देख ही नहीं सकता अर्थात् उसको एक बार देखनेपर फिर दुबारा उसी स्थितिमें नहीं
देखा जा सकता । यह सिद्धान्त है कि जिस वस्तुका किसी भी
क्षण अभाव है, उसका सदा-सर्वदा अभाव ही है । अतः संसारका सदा ही अभाव है ।
संसारको कितनी ही सत्ता दें, उसको कितना ही ऊँचा मानें, उसका कितना ही आदर करें,
उसको कितना ही महत्त्व दें, पर वास्तवमें वह विद्यमान है ही नहीं । असत् प्राप्त है ही नहीं, कभी प्राप्त हुआ ही नहीं, कभी
प्राप्त होगा ही नहीं । असत्का प्राप्त होना सम्भव ही नहीं है । ‘नाभावो
विद्यते सतः’ पदोंका अर्थ है‒‘सतः अभावः न
विद्यते’ अर्थात् सत्का अभाव विद्यमान नहीं है, प्रत्युत सत्का भाव ही
विद्यमान है । दूसरे शब्दोंमें, सत्की सत्ता निरन्तर विद्यमान है । सत् सदा
वर्तमान है । सत् सदा उपस्थित है । सत् सदा प्राप्त है । सत् सदा मिला हुआ है ।
सत् सदा मौजूद है । सत् सदा कायम है । किसी भी देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना,
परिस्थिति, अवस्था, क्रिया आदिमें सत्का अभाव नहीं होता । कारण कि देश, काल,
वस्तु आदि तो असत् (अभावरूप अर्थात् निरन्तर परिवर्तनशील) हैं, पर सत् सदा
ज्यों-का-त्यों रहता है । उसमें कभी किंचिन्मात्र भी कोई परिवर्तन नहीं होता, कोई
कमी नहीं आती । अतः सत्का सदा भी भाव है । |