भगवान्
और सन्तोंकी जब पूर्ण कृपा होती है तब सत्संगति मिलती है‒ संत
बिसुद्ध मिलहिं परि तेही । चितवहिं
राम कृपा करि जेही ॥ (मानस,
उत्तर॰६९/७) विभीषणने
हनुमानजीसे कहा‒ अब मोहि भा भरोस हनुमंता । बिनु
हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ॥ (मानस,
सुन्दर॰७/४) ‘हे हनुमानजी ! अब मुझे पक्का भरोसा हो गया कि भगवान् जरूर मिलेंगे
। आप मिल गये, इससे मालूम होता है कि श्रीभगवान्ने मुझपर
विशेष कृपा की है ।’ भगवान् विशेष कृपा करते हैं तभी अपने प्यारे भक्तोंका संग देते हैं । सत्संगसे बहुत
शान्ति मिलती है । मुझे कई भाई-बहिन मिले हैं । उनका बहुत समाधान हुआ है; शान्ति
मिली है । सत्संगमें सबके लिए उपयोगी बातें मिलती हैं । तत्त्वज्ञ, जीवनमुक्त,
साधक, संसारी, विषयी, समस्त आदमी इसके सुननेके पात्र हैं । जब भी, सत्संग मिल जाय तो समझना चाहिये कि भगवान्ने विशेष
कृपा की है । भगवान्ने मनुष्य-शरीर दिया, यह कृपा की, उसके बाद सत्संग दिया‒यह विशेष कृपा है । ऐसी कृपाका लाभ हमें तो लेना ही
चाहिये । दूसरोंको भी जो लेना चाहें तो देना चाहिये‒ भरा
सत्संग का दरिया, नहा लो जिसका जी चाहे । हजारो
रतन बेकीमत, भरे आला से आला हैं ॥ लगाकर
ज्ञान का गोता, निकालो जिसका जी चाहे । सत्संगरूपी
दरियामें बहुत बढ़िया-बढ़िया रत्न हैं । इसमें ज्ञानकी डुबकी जितनी लगायेंगे, उतनी ही विलक्षण बातें मिलेंगी
। सुननेसे तो मिलती ही हैं, सुनानेसे भी मिलती हैं ।
सुनानेमें भी ऐसी-ऐसी विलक्षण बातें पैदा होती हैं कि बड़ा भारी लाभ होता है । ऐसी
कई बातें हमें सुननेवालोंकी कृपासे मिलती हैं । संत
समागम हरि कथा तुलसी दुर्लभ दोय । सुत
दारा अरु लक्ष्मी पापी के भी होय ॥ भगवान्की कथा और सत्संग‒ये दो दुर्लभ वस्तुएँ हैं । पुत्र-स्त्री और धन तो पापी मनुष्यके भी
प्रारब्धानुसार होते ही हैं । रावणका भी बहुत बड़ा राज्य था‒यह कोई बड़ी बात नहीं । बड़ी बात तो यह है कि भगवान्का चिन्तन हो, स्मरण हो, चर्चा हो तथा भगवान्की तरफ लग जायँ । सन्तोंने भी माँगा है‒ रामजी साधु संगत मोहि दीजिये । वाँरी
संगत दो राम जी पलभर भूल न होय ॥ ‘महाराज ! सत्संगति दीजिये, जिससे आपको
क्षणभर भी नहीं भूलूँ ।’ सज्जनो ! सत्संगसे जो लाभ होता है, वह साधनसे नहीं होता । साधन करके जो परमात्मतत्त्वको प्राप्त करना है, वह कमाकर धनी होनेके समान है ।
किन्तु सत्संग सुनना तो गोदमें जाना है । गोद चले जानेसे कमाया हुआ धन स्वतः मिल जाता है । सन्तोंने कितने वर्ष लगाये
होंगे ? कितना
साधन किया होगा ? कितनोंका संग किया होगा ? उस सबका सार आपको एक घण्टेमें मिल जाता है । गोद जानेमें क्या जोर आवे
साहब ? आज कँगला और कल लखपति ! वह तो कमाये हुए धनका मालिक
बन जाता है । सत्संगके द्वारा ऐसी-ऐसी चीजें मिलती हैं, जो बरसोंतक साधन करनेसे भी नहीं मिलतीं ।
इसलिये भाई ! सत्संग मिल जावे तो जरूर करना चाहिये । इससे मुफ्तमें कल्याण होता है,
मुफ्तमें । कहा गया है‒ जलचर थलचर नभचर नाना । जे जड़ चेतन जीव जहाना ॥ मति कीरति गति भूति भलाई । जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई ॥ सो जानब
सतसंग
प्रभाऊ । लोकहुँ
बेद न आन उपाऊ ॥ (मानस,बाल॰ २/२-३) और‒ संत
समागम करिये भाई, लोह पलट कंचन हो जाई । नानाविध
बनराय कहीजे, भिन्न-भिन्न सब नाम धराई ॥ नौका
रूप जानि सत्संगहि, या में सब मिल बैठो आई । और
उपाय नहीं तिरने का, सुन्दर काढिहि राम दुहाई ॥ नारायण ! नारायण !! नारायण !!! ‒ ‘सत्संगकी विलक्षणता’ पुस्तकसे |