।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
   फाल्गुन कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७८, गुरुवार
           सत्संगकी आवश्यकता



भगवान्‌ और सन्तोंकी जब पूर्ण कृपा होती है तब सत्संगति मिलती है‒

संत बिसुद्ध  मिलहिं परि तेही ।

चितवहिं राम कृपा करि जेही ॥

(मानस, उत्तर६९/७)

विभीषणने हनुमानजीसे कहा‒

अब  मोहि भा    भरोस  हनुमंता ।

बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ॥

(मानस, सुन्दर७/४)

हे हनुमानजी ! अब मुझे पक्का भरोसा हो गया कि भगवान्‌ जरूर मिलेंगे । आप मिल गये, इससे मालूम होता है कि श्रीभगवान्‌ने मुझपर विशेष कृपा की है ।’ भगवान्‌ विशेष कृपा करते हैं तभी अपने प्यारे भक्तोंका संग देते हैं ।

सत्संगसे बहुत शान्ति मिलती है । मुझे कई भाई-बहिन मिले हैं । उनका बहुत समाधान हुआ है; शान्ति मिली है । सत्संगमें सबके लिए उपयोगी बातें मिलती हैं । तत्त्वज्ञ, जीवनमुक्त, साधक, संसारी, विषयी, समस्त आदमी इसके सुननेके पात्र हैं । जब भी, सत्संग मिल जाय तो समझना चाहिये कि भगवान्‌ने विशेष कृपा की है । भगवान्‌ने मनुष्य-शरीर दिया, यह कृपा की, उसके बाद सत्संग दिया‒यह विशेष कृपा है । ऐसी कृपाका लाभ हमें तो लेना ही चाहिये । दूसरोंको भी जो लेना चाहें तो देना चाहिये‒

भरा सत्संग का दरिया, नहा लो जिसका जी चाहे ।

हजारो रतन बेकीमत,        भरे आला से आला हैं ॥

लगाकर ज्ञान का गोता, निकालो जिसका जी चाहे ।

सत्संगरूपी दरियामें बहुत बढ़िया-बढ़िया रत्न हैं । इसमें ज्ञानकी डुबकी जितनी लगायेंगे, उतनी ही विलक्षण बातें मिलेंगी । सुननेसे तो मिलती ही हैं, सुनानेसे भी मिलती हैं । सुनानेमें भी ऐसी-ऐसी विलक्षण बातें पैदा होती हैं कि बड़ा भारी लाभ होता है । ऐसी कई बातें हमें सुननेवालोंकी कृपासे मिलती हैं ।

संत समागम हरि कथा तुलसी दुर्लभ दोय ।

सुत दारा अरु लक्ष्मी     पापी के भी होय ॥

भगवान्‌की कथा और सत्संग‒ये दो दुर्लभ वस्तुएँ हैं । पुत्र-स्त्री और धन तो पापी मनुष्यके भी प्रारब्धानुसार होते ही हैं । रावणका भी बहुत बड़ा राज्य था‒यह कोई बड़ी बात नहीं । बड़ी बात तो यह है कि भगवान्‌का चिन्तन हो, स्मरण हो, चर्चा हो तथा भगवान्‌की तरफ लग जायँ । सन्तोंने भी माँगा है‒

रामजी      साधु   संगत    मोहि    दीजिये ।

वाँरी संगत दो राम जी पलभर भूल न होय ॥

महाराज ! सत्संगति दीजिये, जिससे आपको क्षणभर भी नहीं भूलूँ ।

सज्जनो ! सत्संगसे जो लाभ होता है, वह साधनसे नहीं होता । साधन करके जो परमात्मतत्त्वको प्राप्त करना है, वह कमाकर धनी होनेके समान है । किन्तु सत्संग सुनना तो गोदमें जाना है । गोद चले जानेसे कमाया हुआ धन स्वतः मिल जाता है । सन्तोंने कितने वर्ष लगाये होंगे ? कितना साधन किया होगा ? कितनोंका संग किया होगा ? उस सबका सार आपको एक घण्टेमें मिल जाता है । गोद जानेमें क्या जोर आवे साहब ? आज कँगला और कल लखपति ! वह तो कमाये हुए धनका मालिक बन जाता है । सत्संगके द्वारा ऐसी-ऐसी चीजें मिलती हैं, जो बरसोंतक साधन करनेसे भी नहीं मिलतीं । इसलिये भाई ! सत्संग मिल जावे तो जरूर करना चाहिये । इससे मुफ्तमें कल्याण होता है, मुफ्तमें । कहा गया है‒

जलचर थलचर नभचर नाना ।

जे  जड़  चेतन जीव  जहाना ॥

मति  कीरति  गति भूति भलाई ।

जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई ॥

सो जानब  सतसंग   प्रभाऊ ।

लोकहुँ बेद न  आन   उपाऊ ॥

(मानस,बाल २/२-३)

और‒

संत समागम करिये भाई,    लोह पलट कंचन हो जाई ।

नानाविध बनराय कहीजे, भिन्न-भिन्न सब नाम धराई ॥

नौका रूप जानि सत्संगहि, या में सब मिल बैठो आई ।

और उपाय नहीं तिरने का, सुन्दर काढिहि राम दुहाई ॥

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘सत्संगकी विलक्षणता’ पुस्तकसे