मच्चित्ता
मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च
मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ (गीता १०/९) ‘मेरमें चित्तवाले, मेरेमें प्राणोंको
अर्पण करनेवाले भक्तजन आपसमें मेरे गुण, प्रभाव आदिको जनाते
हुए और उनका कथन करते हुए ही नित्य-निरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं और मेरेमें प्रेम
करते हैं ।’ एक भक्त हो गये हैं—जयदेव कवि । ‘गीत-गोविन्द’ उनका बनाया हुआ बहुत सुन्दर संस्कृत-ग्रन्थ है ।
भगवान् जगन्नाथ स्वयं उनके ‘गीत-गोविन्द’ को सुनते थे । भक्तोंकी बात भगवान् ध्यान देकर
सुनते हैं । एक मालिन थी, उसको ‘गीत-गोविन्द’
का एक पद (धर) याद हो गया । वह बैगन तोड़ती जाती और पद गाती जाती थी
। तो ठाकुरजी उसके पीछे-पीछे चलते और पद सुनते । पुजारीजी मन्दिरमें देखते हैं कि
ठाकुरजीका वस्त्र फटा हुआ है । उन्होंने पूछा—‘प्रभो ! आपके
यहाँ मन्दिरमें रहते हुए, यह वस्त्र कैसे फट गया; ठाकुरजी बोले—‘भाई ! बैगनके काँटोंमें उलझकर फट गया
।’ पुजारीने पूछा—‘बैगनके खेतमें आप
क्यों गये थे ?’ ठाकुरजीने बता दिया; मालिन
‘गीत-गोविन्द’ का धर गा रही थी, अतः सुनने चला गया । वह चलती तो मैं पीछे-पीछे डोलता था, जिससे कपड़ा फट गया । ऐसे स्वयं भगवान् भी सुनते हैं । क्या भगवान्के कोई रोग
है, व्याधि है, पाप है, जिसे दूर करनेके लिये वे सुनते हैं ? फिर भी वे सुनते
हैं । भगवान्की कथा सुननेके अधिकारी भक्त हैं, ऐसे ही
भक्तकी कथा सुननेके अधिकारी—भगवान् होते हैं । जहाँ भक्तोंकी चर्चा होती है, वहाँ भगवान् स्वयं पधारते हैं
।
नाभाजी महाराजने ‘भक्तमाल’ की रचना की । उसके ऊपर प्रियादासजी महाराजने कवितामें टीका की । ये स्वयं
ठाकुरजीका सिंहासन लगाकर, उन्हें कथा सुनाते थे । उनकी
कथामें अनेक धनिक लोग भी आते थे । धनिकोंके आनेसे खतरा होता है । कुछ चोरोंने देखा
कि यहाँ इतने धनी आदमी आते हैं, हम भी चलें । और कुछ नहीं मिला
तो चोरोंने ठाकुरजीकी प्रतिमा चोरी कर ली । प्रियादासजी महाराजने कहा‒‘हमारे मुख्य श्रोता चले गये, अब कथा किसे सुनावें ?
कथा बन्द । ठाकुरजी चले गये । अब भोग किसे लगावें ? भोजन बनाना बन्द ! भूखे रहे । कथा भी बन्द रही । उधर चोरोंके बड़ी खलबली
मची । वे वापस लाकर ठाकुरजीको दे देते हैं । जब ठाकुरजी आ गये तो स्नान किया,
ठाकुरजीको स्नान, श्रृंगार कराया । रसोई बनायी,
भोग लगाया । उसके बाद कथा चली । जब कथा चली तो प्रसंग कहाँतक चला‒ऐसा किसीको याद
नहीं रहा, तब ठाकुरजी स्वयं बोल पड़े कि
अमुक प्रसंगतक कथा हुई थी । इस प्रकार स्वयं श्रीभगवान् भक्तोंकी कथा ध्यानपूर्वक
सुनते हैं । सूर्योदय
होता है तो अन्धकार दूर हो जाता है, पर वह बाहरी अन्धकार होता है; किन्तु जब सत्संगरूपी सूर्य उदय होता है तो उससे भीतर (अन्तःकरण)-में रहनेवाला अँधेरा
दूर हो जाता है । पाप दूर हो जाते हैं । शंकाएँ दूर हो जाती हैं । अन्तःकरणमें
रहनेवाली तरह-तरहकी उलझनें सुलझ जाती हैं‒ राम
माया सतगुरु दया, साधु संग जब होय ।
तब प्राणी जाने कछु, रह्यो विषय रस भोय ॥ |