सत्संगति
सब मैलोंको दूर करती है;
परन्तु सत्संग करते रहनेसे । यदि मनुष्य सत्संगति करे ही नहीं तो
मैल दूर कैसे हो ? पित्तका बुखार होनेसे मिश्री कड़वी लगती है,
कैसे करें ? तो कड़वी लगनेपर भी खाते रहो ।
मिश्रीमें खुदमें ताकत है कि वह पित्तको शान्त कर देगी और मीठी लगने लग जायगी । ऐसे ही सत्संग-भजनमें रुचि न हो तो भी
सत्संग-भजन करते रहनेसे ज्यों-ज्यों पाप नष्ट होने लगेंगे, त्यों-त्यों सत्संगमें मिठास
आने लगेगा । जिस
मिठाईको हम चखे ही नहीं,
उसका स्वाद हम कैसे जान सकते हैं । ऐसे ही जिन्होंने सत्संग किया ही
नहीं, वे इसकी विशेषता नहीं जानते, फिर
भी कह देते हैं कि हमने बहुत सत्संग सुना है । तो समझ लेना चाहिये कि उन्होंने
विशेष सत्संग किया ही नहीं, अन्यथा सत्संगमें रुचि अवश्य
बढ़ती— राम चरित जे सुनत अघाहीं । रस बिसेष जाना तिन्ह नाहीं ॥ (मानस, उत्तर. ५३/१) जो
मनुष्य भगवान्के चरित्र सुनते हैं और तृप्त हो जाते हैं, उन्होंने राम-कथाका विशेष रस
जाना ही नहीं । अन्यथा— जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना । कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना ॥ भरहिं
निरंतर होहिं न
पूरे । ...................................॥ (मानस,
अयोध्या॰ १२८/४-५) आपकी
कथाएँ नदियोंके समान और उन सत्संग-प्रेमियोंके कान ऐसे समुद्रके समान हैं; जो निरन्तर कथारूपी नदियोंके
गिरने (मिलने)-पर भी कभी पूरे भरते नहीं हैं । राजा पृथुने भगवान्की कथा सुननेके लिये दस हजार
कान माँगे । पागल
व्यक्ति जैसे सँभालकर नहीं बोल सकता—ऐसे ही संसारी पुरुष सत्संगके बारेमें
उलटी-सीधी बातें कहते हैं— बातुल भूत बिबस मतवारे । ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे ॥ (मानस,
बाल॰ ११५/७) ऐसे
लोगोंके पैरोंमें पड़ जाओ । उनसे कहो—‘आप पवित्र हो, बड़ी
अच्छी बात है । आप सत्संगमें पधारो । अन्य सत्संगमें आनेवाले लोगोंको पवित्र करो ।’
ऐसे कहकर उन्हें सत्संगमें बुलाओ । नहीं आवे तो उनकी मरजी । गाली
दें तो सह लो । जो गाली सुनाता है वह तो हमारे पापोंको दूर करता है । सत्संगकी
महिमा कहाँतक कही जाय ?
स्वयं भगवान् शंकर श्रीरामजीसे सत्संग माँगते
हैं । बार
बार बर मागउँ हरषि
देहु श्रीरंग । पद
सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग ॥ (मानस,
उत्तर.१४ (क) )
भगवान्
शंकरको कौन-सा पाप दूर करना था ? कौन-सी साधना सीखनी थी ? जो सदा सत्संग
ही चाहते हैं । भगवान् शंकरको कोई राम-कथा सुनानेवाले मिलते हैं तो सुनते हैं और
पार्वतीजी-जैसे सुननेवाले मिलते हैं तो सुनाते हैं । |