मैं सुख ले लूँ, मेरा आदर हो जाय, मेरी बात रह
जाय, मुझे आराम मिले, दूसरा मेरी सेवा करे‒यह भाव महान् पतन करनेवाला है । अर्जुनने भगवान्से पूछा कि मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप
क्यों करता है ? तो भगवान्ने कहा कि ‘मुझे मिले’ यह कामना ही पाप कराती है
(३/३६-३७) । जहाँ
व्यक्तिगत सुखकी कामना हुई कि सब पाप, सन्ताप, दुःख, अनर्थ आदि आ जाते हैं । इसलिये अपनी सामर्थ्यके अनुसार सबको सुख पहुँचाना है, सबकी
सेवा करनी है, पर बदलेमें कुछ नहीं चाहना है । हमारे पास अपने कहलानेवाले
जो बल, बुद्धि, योग्यता आदि है, उसे निष्कामभावसे दूसरोंकी सेवामें लगाना है । हमारे पास वस्तुके रहते हुए दूसरेको उस वस्तुके अभावका दुःख
क्यों भोगना पड़े ? हमारे पास अन्न, जल और वस्त्रके रहते
हुए दूसरा भूखा, प्यासा और नंगा क्यों रहे ?‒ऐसा भाव रहेगा तो सभी सुखी हो जायँगे ।
एक-दूसरेके अभावकी पूर्ति करनेकी रीति भारतवर्षमें स्वाभाविक ही रही है । खेती
करनेवाला अनाज पैदा करता था तो वह अनाज देकर जीवन-निर्वाहकी सब वस्तुएँ ले आता था ।
उसे सब्जी, तेल, घी, बर्तन, कपड़ा आदि जो कुछ भी चाहिये, वह सब उसे अनाजके बदलेमें
मिल जाता था । सब्जी पैदा करनेवाला सब्जी देकर सब वस्तुएँ ले आता था । इस प्रकार
मनुष्य कोई एक वस्तु पैदा करता था और उसके द्वारा वह सभी आवश्यक वस्तुओंकी पूर्ति
कर लेता था । पैसोंकी आवश्यकता ही नहीं थी । परन्तु अब पैसोंको लेकर अपनी आदत
बिगाड़ ली । पैसोंके लोभसे अपना महान् पतन कर लिया ।
पैसोंका संग्रह करनेकी ऐसी धुन लगी कि जीवन-निर्वाहकी आवश्यक वस्तुएँ मिलनी कठिन
हो गयीं ! कारण कि वस्तुओंको बेच-बेचकर रुपये पैदा कर लिये और उनका संग्रह कर लिया
। इस बातका ध्यान ही नहीं रहा कि रुपये पड़े-पड़े स्वयं क्या काम आयेंगे ! रुपये स्वयं किसी काममें नहीं आयेंगे, प्रत्युत उनका खर्च ही
अपने या दूसरोंके काममें आयेगा । परन्तु अन्तःकरणमें पैसोंका महत्त्व बैठा होनेसे
ये बातें सुगमतासे समझमें नहीं आतीं । पैसोंकी यह भूख भारतवर्षकी स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत कुसंगतिसे आयी है । एक मार्मिक बात है कि जो दूसरेका अधिकार होता है
वही हमारा कर्तव्य होता है । जैसे दूसरेका हित करना हमारा कर्तव्य है और दूसरोंका अधिकार है । माता-पिताकी
सेवा करना, उन्हें सुख पहुँचाना पुत्रका कर्तव्य है और माता-पिताका अधिकार है ।
ऐसे ही पुत्रका पालन-पोषण करना और उसे श्रेष्ठ, सुयोग्य बनाना माता-पिताका कर्तव्य
है और पुत्रका अधिकार है । गुरुकी सेवा करना, उनकी आज्ञाका पालन करना शिष्यका
कर्तव्य है और गुरुका अधिकार है । ऐसे ही शिष्यका अज्ञानान्धकार मिटाना, उसे
परमात्मतत्त्वका अनुभव कराना गुरुका कर्तव्य है और शिष्यका अधिकार है । अतः मनुष्यको अपने कर्तव्यपालनके द्वारा दूसरोंके अधिकारकी
रक्षा करनी है । दूसरोंका कर्तव्य और अपना अधिकार देखनेवाला मनुष्य अपने कर्तव्यसे
च्युत हो जाता है । इसलिये मनुष्यको अपने अधिकारका त्याग करना है और
दूसरेके न्याययुक्त अधिकारकी रक्षाके लिये यथाशक्ति अपने कर्तव्यका पालन करना है ।
दूसरोंका कर्तव्य देखना और अपना अधिकार जमाना इहलोक और
परलोकमें पतन करनेवाला है । वर्तमानमें जो अशान्ति, कलह, संघर्ष देखनेमें आ
रहा है, उसका मुख्य कारण यह है कि लोग अपने अधिकारकी माँग तो करते है, पर अपने
कर्तव्यका पालन नहीं करते । इसलिये गीता कहती है‒ कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । (२/४७) ‘अपने कर्तव्यका पालन करनेमें ही तुम्हारा अधिकार है, उसके फलोंमें नहीं ।’ |