।। श्रीहरिः ।।

 


आजकी शुभ तिथि–
     माघ शुक्प्रल तृतीया, वि.सं.-२०७८, गुरुवार
        गीताकी अलौकिक शिक्षा


मैं सुख ले लूँ, मेरा आदर हो जाय, मेरी बात रह जाय, मुझे आराम मिले, दूसरा मेरी सेवा करे‒यह भाव महान्‌ पतन करनेवाला है । अर्जुनने भगवान्‌से पूछा कि मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप क्यों करता है ? तो भगवान्‌ने कहा कि ‘मुझे मिले’ यह कामना ही पाप कराती है (३/३६-३७) । जहाँ व्यक्तिगत सुखकी कामना हुई कि सब पाप, सन्ताप, दुःख, अनर्थ आदि आ जाते हैं । इसलिये अपनी सामर्थ्यके अनुसार सबको सुख पहुँचाना है, सबकी सेवा करनी है, पर बदलेमें कुछ नहीं चाहना है । हमारे पास अपने कहलानेवाले जो बल, बुद्धि, योग्यता आदि है, उसे निष्कामभावसे दूसरोंकी सेवामें लगाना है ।

हमारे पास वस्तुके रहते हुए दूसरेको उस वस्तुके अभावका दुःख क्यों भोगना पड़े ? हमारे पास अन्न, जल और वस्त्रके रहते हुए दूसरा भूखा, प्यासा और नंगा क्यों रहे ?‒ऐसा भाव रहेगा तो सभी सुखी हो जायँगे । एक-दूसरेके अभावकी पूर्ति करनेकी रीति भारतवर्षमें स्वाभाविक ही रही है । खेती करनेवाला अनाज पैदा करता था तो वह अनाज देकर जीवन-निर्वाहकी सब वस्तुएँ ले आता था । उसे सब्जी, तेल, घी, बर्तन, कपड़ा आदि जो कुछ भी चाहिये, वह सब उसे अनाजके बदलेमें मिल जाता था । सब्जी पैदा करनेवाला सब्जी देकर सब वस्तुएँ ले आता था । इस प्रकार मनुष्य कोई एक वस्तु पैदा करता था और उसके द्वारा वह सभी आवश्यक वस्तुओंकी पूर्ति कर लेता था । पैसोंकी आवश्यकता ही नहीं थी । परन्तु अब पैसोंको लेकर अपनी आदत बिगाड़ ली । पैसोंके लोभसे अपना महान्‌ पतन कर लिया । पैसोंका संग्रह करनेकी ऐसी धुन लगी कि जीवन-निर्वाहकी आवश्यक वस्तुएँ मिलनी कठिन हो गयीं ! कारण कि वस्तुओंको बेच-बेचकर रुपये पैदा कर लिये और उनका संग्रह कर लिया । इस बातका ध्यान ही नहीं रहा कि रुपये पड़े-पड़े स्वयं क्या काम आयेंगे ! रुपये स्वयं किसी काममें नहीं आयेंगे, प्रत्युत उनका खर्च ही अपने या दूसरोंके काममें आयेगा । परन्तु अन्तःकरणमें पैसोंका महत्त्व बैठा होनेसे ये बातें सुगमतासे समझमें नहीं आतीं । पैसोंकी यह भूख भारतवर्षकी स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत कुसंगतिसे आयी है ।

एक मार्मिक बात है कि जो दूसरेका अधिकार होता है वही हमारा कर्तव्य होता है । जैसे दूसरेका हित करना हमारा कर्तव्य है और दूसरोंका अधिकार है । माता-पिताकी सेवा करना, उन्हें सुख पहुँचाना पुत्रका कर्तव्य है और माता-पिताका अधिकार है । ऐसे ही पुत्रका पालन-पोषण करना और उसे श्रेष्ठ, सुयोग्य बनाना माता-पिताका कर्तव्य है और पुत्रका अधिकार है । गुरुकी सेवा करना, उनकी आज्ञाका पालन करना शिष्यका कर्तव्य है और गुरुका अधिकार है । ऐसे ही शिष्यका अज्ञानान्धकार मिटाना, उसे परमात्मतत्त्वका अनुभव कराना गुरुका कर्तव्य है और शिष्यका अधिकार है । अतः मनुष्यको अपने कर्तव्यपालनके द्वारा दूसरोंके अधिकारकी रक्षा करनी है । दूसरोंका कर्तव्य और अपना अधिकार देखनेवाला मनुष्य अपने कर्तव्यसे च्युत हो जाता है । इसलिये मनुष्यको अपने अधिकारका त्याग करना है और दूसरेके न्याययुक्त अधिकारकी रक्षाके लिये यथाशक्ति अपने कर्तव्यका पालन करना है । दूसरोंका कर्तव्य देखना और अपना अधिकार जमाना इहलोक और परलोकमें पतन करनेवाला है । वर्तमानमें जो अशान्ति, कलह, संघर्ष देखनेमें आ रहा है, उसका मुख्य कारण यह है कि लोग अपने अधिकारकी माँग तो करते है, पर अपने कर्तव्यका पालन नहीं करते । इसलिये गीता कहती है‒

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।

(२/४७)

‘अपने कर्तव्यका पालन करनेमें ही तुम्हारा अधिकार है, उसके फलोंमें नहीं ।’