‘तस्मिस्तज्जने भेदाभावात्’ (नारदभक्तिसूत्र ४१) । सन्त भगवान्से अपना अलग अस्तित्व नहीं मानते, इसलिये उनमें स्वार्थकी गन्ध भी
नहीं रहती । भगवान्से
अलग उनकी कोई इच्छा नहीं, वे स्वाभाविक ही भगवान्की इच्छामें अपनी इच्छा, उनकी
रुचिमें अपनी रुचि मिलाये रहते हैं । अतः उनके हरेक
विधानमें परम सन्तुष्ट रहते हैं । सन्त भगवान्पर ही निर्भर
रहते हैं । ‘जाही बिधि राखै राम, ताही बिधि रहिये’‒को वे अपने जीवनमें अक्षरशः चरितार्थ
कर लेते हैं और इस प्रकार भगवान्के विधानानुसार रहनेमें वे बड़े प्रसन्न होते हैं ।
हमलोग भी भगवान्के विधानानुसार ही रहते हैं । (क्योंकि भगवान्की इच्छाके विरुद्ध
एक पत्ता भी नहीं हिलता ।) पर उसमें हमारी प्रसन्नता नहीं होती, हमें बाध्य होकर
रहना पड़ता है । यदि हममें मन-इन्द्रियाँके प्रतिकूल
भगवद्विधानको बदलनेकी शक्ति-सामर्थ्य होती तो हम उसे अपने अनुकूल बना लेते ।
परन्तु क्या करें, हमारा वश नहीं चलता, तो भी शक्ति-सामर्थ्य न रहनेपर भी उससे
बचनेका असफल प्रयत्न तो निरन्तर करते ही रहते हैं । पर सन्तमें ऐसी बात
नहीं है, सन्तके मनमें भगवान्के विधानानुसार बरतनेमें कुछ भी विचार नहीं होता;
प्रत्युत भगवान्के विधानके अनुसार प्राप्त परिस्थिति
उसके लिये अनुकूल-से-अनुकूल प्रतीत होती है तथा उसके हृदयमें सदा-सर्वदा भगवान्के
विराजमान रहनेके कारण उसपर प्रतिकूलताका कोई असर नहीं होता । भगवान् स्वयं कहते हैं‒ समोऽहं
सर्वभूतेषु न मे
द्वेष्योऽस्ति न प्रियः । ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥ (गीता ९/२९)
‘अर्जुन ! मैं सब भूतोंमें समभावसे व्यापक
हूँ, न कोई मेरा प्रिय है, न अप्रिय है; परन्तु जो मुझको प्रेमसे भजते हैं, वे
मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ ।’ विचार कर देखें तो यह बात ठीक समझमें आ जाती है । जैसे एक
अच्छा मकान है, उसमें किसीका कब्जा-दखल नहीं है, अतएव अच्छे पुरुषको उसमें
स्वाभाविक ही प्रसन्नता होगी । इस प्रकार सन्तके
अहंता-ममतासे रहित निर्मल अन्तःकरणमें भगवान् प्रकटरूपसे रहकर बड़े प्रसन्न होते
हैं; क्योंकि वहाँ उनके रहनेमें कोई किसी प्रकारका प्रतिबन्ध नहीं लगाता,
विघ्न नहीं डालता । भगवान् ऐसे घरमें बड़े निःसंकोचभावसे रहते हैं ।
श्रीरामचरितमानसमें गोस्वामी तुलसीदासजी कहा है‒ जाहि
न चाहिये कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु ।
बसहु निरंतर
तासु मन सो
राउर निज गेहु ॥
इस प्रकार सन्तके हृदयमें भगवान्का वास होनेसे, वह जो
कार्य करता है, वह भी भगवान् ही करते हैं, वह जो भी सोचता है, वह भगवान् ही
सोचते हैं; इत्यादि कथन सर्वथा सत्य है । सन्त और भगवान्के विषयमें तीन प्रकारकी बातें मिलती हैं‒(१)
दोनोंमें कुछ अन्तर नहीं । संत
- भगवंत अंतर निरंतर
नहीं किमपि
मति मलिन कह दास तुलसी ॥
(विनयपत्रिका)
सन्त ही भगवान् हैं और भगवान् ही
सन्त हैं अर्थात् सन्तोंका भगवान्के अतिरिक्त कोई पृथक अस्तित्व ही नहीं रहता ।
केवल भगवान् ही रह जाते हैं । किसीने कहा भी है‒ ढूँढ़ा सब
जहाँमें पाया पता
तेरा नहीं । जब पता तेरा लगा तो अब पता मेरा नहीं ॥ |