(१०) दोषोंका भाव विद्यमान नहीं है और निर्दोषताका अभाव विद्यमान
नहीं है अर्थात् दोषोंकी सत्ता है ही नहीं और निर्दोषता स्वतःसिद्ध है । कोई भी
दोष स्थायी नहीं रहता, आता-जाता है और उसके आने-जानेका ज्ञान जिसको होता है, वह
(निर्दोष तत्त्व) स्थायी रहता है । तात्पर्य है कि दोषोंका ज्ञान दोषीको नहीं
होता, प्रत्युत निर्दोषको होता है और निर्दोषतासे ही होता है । दोषोंके आने-जानेका
ज्ञान तो सबको होता है, पर अपने आने-जानेका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता; क्योंकि
दोष असत् हैं और हमारा निर्दोष स्वरूप सत् है । हमारेमें
दोष हैं‒ऐसा मानना ही दोषोंको निमन्त्रण देना है, उनको अपनेमें स्थापन करना है ।
अगर दोष हमारेमें होते तो फिर जैसे हम निरन्तर रहते हैं, ऐसे ही वे भी निरन्तर
रहते और उनका कभी अभाव नहीं होता । दूसरी बात, अगर दोष
हमारेमें होते तो हम सर्वांशमें दोषी होते, सबके लिये दोषी होते और सदाके लिये
दोषी होते । परन्तु कोई भी मनुष्य सर्वांशमें दोषी नहीं होता, सबके लिये दोषी नहीं
होता और सदाके लिये दोषी नहीं होता ।
दोषोंको सत्ता हमने ही दी है, इसलिये दोषोंका आना-जाना हमें
दीखता है । अगर दोषोंकी सत्ता न मानें तो दोष हैं ही नहीं‒‘नासतो विद्यते भावः’ । जैसे सूर्यमें अमावस्याकी रात नहीं आ सकती,
ऐसे ही नित्य स्वरूपमें अनित्य दोष नहीं आ सकते । जैसे परमात्मा निर्दोष हैं‒‘निर्दोष हि समं ब्रह्म’ (गीता ५/१९), ऐसे ही उनका अंश
जीवात्मा भी निर्दोष है‒‘अविकार्योऽयमुच्यते’ (गीता २/२५),
‘ईस्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज रासी ॥’ (मानस,
उत्तर॰ ११७/१) । अतः
दोषोंको अपनेमें मानना और दूसरोंमें मानना‒दोनों ही गलती है । |