।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
      चैत्र कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७८, सोमवार

संसारका आश्रय कैसे छूटे ?


थोड़ा-सा विचार करें तो बात स्पष्ट समझमें आती है कि बाल्यावस्थामें हमारा जिन मित्रोंके साथ, जिन खिलौनोंके साथ, जिन व्यक्तियोंके साथ सम्बन्ध था, वह सम्बन्ध आज केवल याद-मात्र है । आज वह सम्बन्ध नहीं है । न उस अवस्थाके साथ सम्बन्ध है, न उन घटनाओंके साथ सम्बन्ध है । न उन खिलौनोंके साथ सम्बन्ध है, न उस समयके साथ सम्बन्ध है । अब आप कहते हो कि हमारी बाल्यावस्था ऐसी थी और हम अड़ जायँ कि ऐसी नहीं थी, तो आपके पास कोई प्रबल प्रमाण नहीं है कि आप उसको हमें बता सकें । आप और हम जिद भले ही कर लें, पर हमारी बाल्यावस्था ऐसी थीइसको आप और हम नहीं बता सकते । बतायें भी तो क्या बतायें और कैसे बतायें ? किसकी ताकत है, जो उसको बता दे ? आपको अपनी बाल्यावस्था वर्तमान अवस्थाकी तरह सच्ची दीखती थी, पर आज आप उसको सिद्ध नहीं कर सकते, तो फिर आज आपकी जो अवस्था है, उसको आगे सिद्ध करना चाहेंगे तो कैसे करेंगे ? जिस तरहसे उस बाल्यावस्थाका समय बीता उसी तरहसे यह आजका समय बीत रहा है । भविष्यमें क्या होगा, अभी घण्टेभर बादमें क्या होगा, कुछ पता नहीं ! आजसे युगों पहले क्या हुआ, पता नहीं और आजसे युगों बाद क्या होगा, पता नहीं । वर्तमान भी बड़ी तेजीसे बीत रहा है । वर्तमान, ‘हैका नाम नहीं है, प्रत्युत जो बरत रहा है अर्थात् तेजीसे जा रहा है, उसका नाम वर्तमान है । वर्तमान इतनी तेजीसे जा रहा है कि इसका एक क्षण भी स्थिर नहीं है । वर्तमान कोई काल है ही नहीं, केवल भूत और भविष्यकी सन्धिको वर्तमान कहा गया है । वर्तमान शब्दका अर्थ ही हैचलता हुआ । जो भविष्य है, वह सामने आ करके भूतमें जा रहा है, उसको वर्तमान कहते हैं । इस प्रकार जो कभी स्थिर रहता ही नहीं, जिसका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है, उससे विमुख होनेमें क्या जोर आता है, बताओ ? यह तो जबरदस्ती छूटेगा, रहेगा नहीं । इसको रखना चाहोगे तो बेइज्जती, दु:ख, सन्ताप, जलन, आफतके सिवाय और कुछ मिलनेका है नहीं । परन्तु इसको छोड़ दोगे तो निहाल हो जाओगे ! अतः चाहे संसारके सम्बन्धका त्याग कर दो चाहे भगवान्‌के साथ सम्बन्ध मान लो कि हे भगवान्‌ ! आप ही हमारे हो। भगवान्‌का ही नाम लो, उनका ही चिन्तन करो, उनके आगे रोओ और कहो कि महाराज ! संसारका त्याग करनेमें मैं तो हार गया, मुझे अपनी मनोवृत्तियाँ बड़ी प्रबल प्रतीत होती हैं ।ऐसे करके भगवान्‌के शरण हो जाओ । तुलसीदासजी महाराज कहते हैं

हौं  हार्‌यो करि जतन बिबिध  बिधि अतिसै प्रबल अजै ।

तुलसिदास  बस  होइ   तबहिं   जब   प्रेरक  प्रभु  बरजै ॥

(विनय पत्रिका ८९)