हमारेसे तो ये शत्रु सीधे होते
नहीं । वे प्रभु कृपा करेंगे, तभी ये सीधे होंगे । परन्तु अपनी शक्तिका पूरा उपयोग किये बिना मनुष्य अपनी शक्तिसे हताश नहीं
हो पाता—अपनेमें असमर्थताका
अनुभव नहीं कर पाता । अपनी शक्तिसे हताश हुए बिना अभिमान नहीं मिटता कि मैं ऐसा कर
सकता हूँ । पूरी शक्ति लगाकर भी काम न बने तो कह दे कि ‘हे
नाथ ! अब मैं कुछ नहीं कर सकता !’ तो फिर उसी क्षण काम बन
जायगा । परन्तु पूरी शक्ति लगाये बिना ऐसी अनन्यता नहीं आती । इसलिये
जो आप कर सकते हैं, उसे पूरा करके मनकी निकाल दें । जब
भीतर यह विश्वास हो जायगा कि मेरी शक्तिसे काम नहीं होगा, तब
स्वतः पुकार निकलेगी कि ‘हे नाथ ! मेरी शक्तिसे नहीं होता’
और उसी क्षण भगवान्की शक्तिसे काम पूरा हो जायगा । अपनी शक्ति बाकी रखते हुए
भगवान्के अनन्य शरण नहीं हो सकते । अगर अपनी शक्तिका कुछ आश्रय है कि हम कुछ कर
सकते हैं, तो करके पूरा
कर लो । जितना जोर लगाना हो, पूरा-का-पूरा लगा लो । पूरा जोर
लगानेपर जब जोर बाकी नहीं रहेगा, तब कार्य सिद्ध हो जायगा । अगर
जोर लगाये बिना ही संसारका आश्रय छूट जाय तो भी कार्य सिद्ध हो जायगा । कारण कि
संसारका जो आश्रय है, वह परमात्माका आश्रय नहीं लेने देता,
इतना ही उसका काम है और खुद वह रहता नहीं ! संसारका आश्रय व्याकरणके ‘क्विप्’ प्रत्ययकी तरह है । ‘क्विप्’ प्रत्यय खुद तो रहता नहीं, पर धातुके गुण और वृद्धि नहीं होने देता । ऐसे ही
संसारका आश्रय खुद तो रहता नहीं, पर मनुष्यमें न तो सद्गुण-सदाचार आने देता है और
न उसको परमात्माकी तरफ बढ़ने देता है । अतः संसारका आश्रय
रखनेसे कोरा, निखालिस धोखा ही होगा । इसमें कोई लाभ होता हो तो बताओ ? श्रोता—अनन्त
जन्मोंसे संसारका आश्रय लेनेके संस्कार पड़े हुए हैं !
स्वामीजी—यह सब कुछ नहीं, केवल बहानेबाजी है । आपका विचार ही नहीं है, इसलिये बहाना
बनाते हो । बहानेबाजियाँ मैंने बहुत सुनी हैं । ‘क्या करें, हमारे कर्म ठीक नहीं
हैं । क्या करें, कोई अच्छा महात्मा नहीं मिलता । क्या करें, ईश्वरने ऐसी कृपा नहीं
की । क्या करें, वायुमण्डल ऐसा ही है । क्या करें, समय ऐसा ही आ गया है । समय बहुत
खराब आ गया है, समाजमें कुसंग बहुत है । क्या करें, हमारा प्रारब्ध ऐसा ही है ।
क्या करें, हमारे संस्कार ऐसे ही हैं । कहाँ
जायँ ? क्या करें ? किस तरहसे करें ? किससे पूछें ? ईश्वरने हमारेको ऐसा ही बना
दिया । भगवान्की माया ही ऐसी है, हम क्या करें ।’—ये सब बिलकुल फालतू बातें हैं, इनमें कुछ तत्त्व नहीं है ।
मैंने इनका अध्ययन किया है । ये जितनी बहानेबाजियाँ हैं,
ये सब केवल असली लाभसे वञ्चित होनेके तरीके हैं । कहीं असली लाभ न हो जाय—इसके लिये ढूँढ़-ढूँढ़कर तरीके निकाले हैं और कुछ
नहीं ! ऐसी बढ़िया
रीतिसे कमर कसी है कि किसी तरहसे आध्यात्मिक
उन्नति न हो जाय । कुछ-न-कुछ आड़ लगा ही देंगे कि स्वामीजीको इन बातोंका क्या पता ?
इनके गृहस्थ तो है नहीं । दुकान इनके है नहीं । इनको तो मुफ्तमें रोटी मिलती है और
बातें बनानी आती हैं । इस प्रकार किसी तरहसे इनकी बातोंको टाल देना है—यह आपने सोच रखा है । इसके लिये तरीके आपको बहुत आते हैं ।
एक-दो, चार-पाँच तरीके थोड़े ही हैं । यदि कर्म बाधक हैं,
तो कर्म तुम्हारे किये हुए हैं या और किसीके ? तुम्हारे बनाये हुए संस्कार यदि
बाधक हैं, तो क्या उनको तुम मिटा नहीं सकते ? आपने किया है, देखा है, सुना
है, समझा है, पढ़ा है—इस
प्रकार आपने स्वयं अपने भीतर जो संस्कार डाले हैं, वे ही उपजते हैं । अतः आपके
किये हुए संस्कार ही उपजते हैं, आपके किये बिना एक भी संस्कार नहीं उपज सकता । |