श्रोता—संसारमें रहकर संसारकी इच्छासे अलग कैसे रह सकते
हैं ? स्वामीजी—संसारमें रहकर भी सब तरहकी इच्छा होती है क्या ? नहीं हो
सकती । बनावटी इच्छा सब तरहकी कैसे हो सकती है ? भोजनमें भी दो आदमियोंकी एक इच्छा
नहीं होती । किसीको मीठा अच्छा लगता है, किसीको मिर्च अच्छी लगती है । किसीको थोड़ी
मिर्च अच्छी लगती है । इस तरह संसारकी सब इच्छाएँ सबको नहीं होतीं । अतः संसारकी
इच्छा छूटनेवाली है । जैसे संसारकी दूसरी इच्छाओंसे आप
अलग रहते हैं, ऐसे ही जिन इच्छाओंको आपने पकड़ रखा है, उन इच्छाओंसे भी आप अलग रह
सकते हैं । वास्तवमें आप स्वयं संसारमें रहते ही नहीं, प्रत्युत
परमात्मामें ही रहते हैं—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५/७) । जो आपके नहीं हैं, उन शरीरादिको तो आप अपना मान
लेते हैं और जो आपके अपने हैं, उन परमात्माको आप अपना नहीं मानते—यह खास भूल है । श्रोता—परमात्माको देखे बिना अपना कैसे मानें ? स्वामीजी—आप स्वयं दीखते हो क्या ? आप कहते हैं कि शरीर मेरा है,
इन्द्रियाँ मेरी हैं, मन मेरा है, बुद्धि मेरी है, तो इससे सिद्ध होता है कि आप
शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसे अलग हैं । अतः आप कैसे हैं ? आपका रंग-रूप कैसा है ?
बताओ । आप स्वयं नहीं दीखते, फिर भी अपनेको मानते हो कि
नहीं ? अभी तो बात चल रही है, उसकी तरफ ध्यान तो दो, जिस इच्छाकी पूर्ति नहीं हो सकती है, उसको तो छोड़ दो और जिस
इच्छाकी पूर्ति हो सकती है, उसको पकड़ लो—इतनी ही तो बात है । सिद्धान्तकी एकदम पक्की बात है । यं
लब्धवा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः । (गीता ६/२२) —जिसकी प्राप्तिसे बढ़कर दूसरा कोई लाभ है ही नहीं और दुःख
जिसके नजदीक ही नहीं पहुँचता, उसकी प्राप्ति आप सबको हो सकती है; परन्तु यह तब
होगी, जब आप दूसरी (सांसारिक) इच्छा नहीं रखोगे । अगर
परमात्माकी इच्छा भी रहेगी और संसारकी इच्छा भी रहेगी, तो काम नहीं बनेगा—‘दुविधामें दोनों गये, माया मिली न राम ।’ श्रोता—भगवान् सांसारिक कामना पैदा कर देते हैं ! स्वामीजी—भगवान् कभी किसीकी कामना पैदा नहीं करते, नहीं
करते, नहीं करते ! कामना तो आपकी अपनी बनायी हुई है । आप सच्चे हृदयसे प्रार्थना करो तो भगवान् मिटा देंगे । जिससे आपपर आफत आये, ऐसा काम भगवान् नहीं करते; क्योंकि
आप भगवान्के अंश हैं । अंशी अपने अंशका बिगाड़ कैसे कर सकता है ? नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
—‘अच्छे बनो’ पुस्तकसे |