आपको ऐसी लगन लग जाय कि
हमें तो उस तत्त्वको ही प्राप्त करना है । अधूरी चीज नहीं लेनी है । अधूरा सुख नहीं
लेना है । निर्वाहमात्रकी रोटी खा लेनी है, निर्वाहमात्रका कपड़ा पहन लेना है ।
हमें सुख नहीं लेना है, आराम नहीं लेना है । ऐसे विचार होनेसे
उसकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत् होगी । उत्कट अभिलाषा होनेसे उस तत्त्वका अनुभव हो जायगा, क्योंकि वह तत्त्व सब जगह मौजूद है, संसार मौजूद नहीं है । श्रोता‒ऐसा विचार कैसे उत्पन्न हो ? स्वामीजी‒अभी जो बातें कही हैं, इन बातोंका आदर
करो । आप अनुकूल भोजनमें राजी हो जाते हो, कोई आपको बढ़िया-बढ़िया भोजन परोसे तो राजी हो जाते हो, कोई आदर करे तो राजी हो जाते हो, तो अधिकारी नहीं हो इस तत्त्वके ! जो अनुकूलतामें राजी होता
है उसमें मनुष्यपना है ही नहीं ! अगर परमात्मप्राप्ति चाहते हो तो इसमें उलझो
मत । इसमें सुख मत मानो । कोई आपके अनुकूल हो जाय तो बड़ा अच्छा लगता है और कोई आपके
हितकी कड़वी बात कह दे तो आपको बुरा लगता है । जिसको हितकी बात भी बुरी लगती है, वह कैसे उस तत्त्वको प्राप्त कर सकता है ? जो आपके मनके
अनुकूल चिकनी-चुपड़ी बात करे, वह आदमी अच्छा लगता है तो आप इस तत्त्वके अधिकारी नहीं हो । आप असली सत्संगमें
टिक नहीं सकते, ठहर नहीं सकते । बिना ठहरे उस तत्त्वकी
प्राप्ति होती नहीं । यह अपने हृदयपर हाथ रख करके सोचो । वह तत्त्व सबमें निरन्तर रहता है ।
सब देशमें, सब कालमें, सब वस्तुओंमें, सम्पूर्ण व्यक्तियोंमें, सम्पूर्ण परिस्थितियोंमें, सम्पूर्ण घटनाओंमें, सम्पूर्ण अवस्थाओंमें वह तत्त्व निरन्तर ज्यों-का-त्यों
रहता है । अतः इन सब नष्ट होनेवाली वस्तुओंसे विमुख हो जाओ
अर्थात् इनसे सुख मत लो, इनमें रीझो मत, उलझो मत । तत्त्व यहाँ ही मिल जायगा
। अगर इससे सुख लोगे तो दुःखके सिवाय कुछ नहीं मिलेगा । आप थोड़ा विचार करो तो बिलकुल प्रत्यक्ष
बात है । अतः आप इनसे रहित हो जाओ । वास्तवमें आप इनसे रहित हो, अगर रहित न होते तो इन पदार्थों, व्यक्तियों, अवस्थाओं आदिके संयोग और वियोगको कौन देखता ? इनके संयोग-वियोगको देखनेवाला, इनसे अलग होता है । अतः आप इतना
खयाल रखो कि संयोग और वियोगको तटस्थ होकर देखते रहो, उनमें फँसो मत ।
वह तत्त्व आपको स्वतः प्राप्त है ।
उसकी प्राप्तिमें कठिनता कैसी ? कठिनता तो अनुकूल परिस्थितिकी प्राप्तिमें है, अनुकूल भोगोंकी प्राप्तिमें है, सम्मानकी प्राप्तिमें है, नीरोगताकी प्राप्तिमें है । उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंकी
प्राप्तिमें कठिनता है; क्योंकि वे टिकनेवाली नहीं हैं; अतः मिलनेवाली नहीं हैं । वे सीमित हैं; अतः सबको नहीं मिलतीं । परन्तु परमात्मतत्त्व असीम है; अतः वह सबका अपना है और सबमें है । उसकी प्राप्तिके लिये
आप उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंसे रहित हो जायँ । जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्तिसे रहित हो जायँ । |