।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
       चैत्र शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७९, गुरुवार

परमात्मप्राप्तिकी सुगमता



जाग्रत्‌में जितने पदार्थ, क्रियाएँ, घटनाएँ घटती हैं, उनसे रहित हो जायँ । ये तो बनने-बिगड़नेवाले हैं, हम इनके साथ नहीं हैं‒ऐसे चुप हो जाओ, इनसे अलग हो जाओ । दिनमें पन्द्रह, बीस, पचीस बार, सौ-दो-सौ बार एक-एक, दो-दो सेकेण्डके लिये भी आप इनसे अपनेको अलग अनुभव करके देखो । मिनटभरके लिये अलग हो जाओ, तब तो कहना ही क्या ! अगर चुप होनेपर हृदयमें उथल-पुथल मचे तो उससे भी अलग हो जाओ । यह उथल-पुथल भी जानेवाली है, मिटनेवाली है । कई संकल्प-विकल्प हो जायँ, वे भी मिटनेवाले हैं । मिटनेवाले हैं‒बस, इतना खयाल रखो । मिटनेवालेमें क्या राजी और क्या नाराज हों ? न पदार्थोंके संयोग-वियोगसे राजी-नाराज होना है, न संकल्पोंके संयोग-वियोगसे राजी-नाराज होना है । अच्छे-से-अच्छे संकल्प आ जायँ तो उनसे भी राजी नहीं होना है और बुरे-से-बुरे संकल्प आ जायँ तो उनसे भी नाराज नहीं होना है । राजी-नाराज न होनेसे गुणातीत हो जाओगे, तत्त्वकी प्राप्ति हो जायगी‒

ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।

निर्द्वन्द्वो  हि  महाबाहो सुखं  बन्धात्प्रमुच्यते ॥

(गीता ५ । ३)

अनुकूलता-प्रतिकूलता कुछ भी आये, इच्छा-द्वेष मत करो, सुखी-दुःखी मत होओ । चाहे मान हो, चाहे अपमान हो; कोई आदर करे, चाहे निरादर करे; अनुकूल पदार्थ मिले, चाहे प्रतिकूल पदार्थ मिले; अनुकूल व्यक्ति मिले, चाहे प्रतिकूल व्यक्ति मिले; केवल इतनी बात करनी है कि इसमें राजी और नाराज न हों । अगर राजी-नाराज हो जाते हैं तो ऐसा समझें कि यह तो बड़ी आफत है ! मैंने कई बार कहा है कि सुखका भी दुःख होना चाहिये और दुःखका भी दुःख होना चाहिये । अनुकूल परिस्थितिमें सुखी हो गये तो दुःख होना चाहिये कि हम सुखमें राजी क्यों हो गये और प्रतिकूल परिस्थितिमें दुःखी हो गये तो दुःख होना चाहिये कि हम दुःखी क्यों हो गये ! हम तो द्वन्द्वमें फँस गये ! हम सुखी-दुःखी हो गये तो यह हमारी गलती हुई । केवल इसको गलती मानते रहो कि यह ठीक नहीं है । यह कर सकते हो कि नहीं ? बताओ ।

श्रोता‒महाराजजी ! सर्वत्र ऐसा नहीं होता ।

स्वामीजी‒सर्वत्र नहीं होता, आंशिक होता है तो कोई हर्ज नहीं । कुछ ऐसी परिस्थितियाँ हैं, जिनमें सम रहना हमारे वशकी बात नहीं और कुछ ऐसी परिस्थितियाँ हैं, जिनमें हम सम रह सकते हैं । अतः जिस परिस्थितिमें सम रहना आपको सुगम दीखता है, उसमें आप सम रह जाओ तो इसके दो परिणाम होंगे‒पहला, जिसमें सम रहना आपको कठिन मालूम देता है, उसमें सम रहना सुगम हो जायगा; और दूसरा, जिन कमियोंका पता ही नहीं लगता, उनका पता लगने लगेगा । अतः जितना सुगमतापूर्वक होता है, उतना तो कर ही दो । आजसे ही आप इतनी बात मान लो कि जिसमें सम रहना सुगम है, उसमें हम सम रहेंगे ।

नारायण !    नारायण !    नारायण !