मैं जो बात कहता हूँ, उसको आप कृपा करके मान लें । मैं ऐसी
बात कहता हूँ, जो आपकी जानी हुई है । कोई नयी बात नहीं बताता हूँ । कोई भाई-बहन
क्या ऐसा जानता है कि मैं पहले नहीं था और पीछे नहीं रहूँगा ? यह प्रश्न स्वयंके
विषयमें हैं, शरीरके विषयमें नहीं । शरीर तो पैदा होनेसे पहले नहीं था और मरनेके
बाद नहीं रहेगा । परन्तु मैं पहले नहीं था और पीछे नहीं
रहूँगा तथा अब भी मैं नहीं हूँ—ऐसे अपने अभावका अनुभव भी किसीको होता है क्या ? अपने
अभावका अनुभव किसीको कभी नहीं होता । मैं क्या था, क्या रहूँगा, क्या हूँ—ऐसा विचार तो हो सकता है, पर ‘मैं हूँ कि नहीं हूँ ?’—ऐसा विचार, सन्देह कभी नहीं होता । ‘मैं हूँ’—यह जो
अपनी सत्ता, अपना होनापन है, उसका कभी किञ्चिन्मात्र भी अभाव नहीं होता—‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६) जिसका कभी अभाव नहीं होता, उसमें कभी कमी नहीं आती ।
जिसमें कोई कमी नहीं आती, उसके लिये क्या चाहिये ? कुछ नहीं चाहिये । कारण कि
चाहना तो कमीमें ही होती है । जिसका कभी अभाव नहीं होता, जिसमें कभी कमी नहीं आती,
जो नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है, उसके लिये करना क्या बाकी रहा ? जानना
क्या बाकी रहा ? पाना क्या बाकी रहा ? परन्तु उस ‘है’ में स्थित न होकर, जो
प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है, उस शरीरमें आप स्थित हो जाते हैं, तब करना भी बाकी रहता
है, जानना भी बाकी रहता है और पाना भी बाकी रहता है । इस बातको भी आप जानते हैं कि शरीर प्रतिक्षण बदलता है, कभी
भी एकरूप नहीं रहता । अगर शरीर एकरूप रहता, तो बचपनका शरीर अभी भी रहना चाहिये था
। परन्तु बचपनका शरीर अभी नहीं है—यह सबका
अनुभव है । बचपनका शरीर किसी एक दिनमें, एक महीनेमें अथवा एक वर्षमें नहीं बदला
है, प्रत्युत प्रत्येक वर्षमें, प्रत्येक महीनेमें, प्रत्येक दिनमें, प्रत्येक
घण्टेमें, प्रत्येक मिनटमें और प्रत्येक सेकण्डमें बदलता है । अतः केवल बदलनेके पुञ्जका नाम शरीर है । शरीरादि पदार्थ स्थूल
बुद्धिसे दीखते हैं । सूक्ष्म बुद्धिसे देखें तो केवल परिवर्तन-ही-परिवर्तन
दीखेगा, वस्तु नहीं दीखेगी । जैसे पंखा चलता है तो गोल चक्कर दीखता है, पर
वास्तवमें गोल चक्कर नहीं है । पंखेकी ताड़ी अलग-अलग है, पर तेजीसे घूमनेके कारण
गोल चक्कर दीखता है । ऐसे ही बदलनेके कारण पदार्थ, शरीर दीखता है । यह शरीर है—ऐसा कहनेमें तो देरी लगती है, पर इसके बदलनेमें देरी नहीं
लगती । यह तो हरदम बदलता रहता है
। परन्तु स्वयं (स्वरूप) नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है । नित्य-निरन्तर रहनेवाले स्वयंको जब प्रतिक्षण बदलनेवाले शरीरके
साथ मिला लेते हैं, तब कामना, इच्छा, वासना, तृष्णा आदि पैदा होती हैं । इसीसे सब
अनर्थ होते हैं । अगर हम नित्य-निरन्तर रहनेवाले नहीं होते, तो पहले किये हुए
कर्मोंका फल आगे किसको भोगना पड़ेगा ? हम पहले थे, तभी तो पहले किये हुए कर्मोंका
फल अब भोग रहे हैं; और हम आगे रहेंगे, तभी तो अभी किये हुए कर्मोंका फल आगे भोगना
पड़ेगा । पहले हमने जो कर्म किये थे, वे परिवर्तनशील शरीरके साथ मिलकर ही किये थे
और अब उनका फल भी शरीरके साथ मिलकर ही भोगेंगे । अगर हम शरीरके साथ न मिलें तो न
पहलेका कर्म स्पर्श करेगा, न अभीका कर्म स्पर्श करेगा और न भविष्यका कर्म स्पर्श
करेगा । कारण कि ‘है’ में कभी अभाव नहीं होता और अभाव हुए बिना उसमें दूसरी
वस्तुका स्पर्श नहीं होता, प्रवेश नहीं होता । वह ‘है’ सदा ज्यों-का-त्यों रहता
है, इसलिये उसका अनुभव करनेवाले महापुरुषोंने कहा है— है
सो सुन्दर है सदा, नहिं सो सुन्दर नाहिं ।
नहिं सो परगट देखिये, है सो दीखे नाहिं ॥ |