।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
  वैषाख कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७९, मंगलवार

गीता-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर


प्रश्नचौथे अध्यायके सातवें श्लोकमें भगवान्‌ने कहा है कि मैं अपने-आपको साकाररूपसे प्रकट करता हूँ, और फिर वे नवें अध्यायके चौथे श्लोकमें कहते हैं कि मैं अव्यक्तरूपसे सम्पूर्ण संसारमें व्याप्त हूँ, तो जो एक देशमें प्रकट हो जाते हैं, वे सब देशमें कैसे व्याप्त रह सकते हैं और जो सर्वव्यापक हैं, वे एक देशमें कैसे प्रकट हो जाते हैं ?

उत्तरजब एक प्राकृत अग्‍नि भी सब जगह व्यापक रहते हुए एक देशमें प्रकट हो जाती है और एक देशमें प्रकट होनेपर भी अग्‍निका सब देशमें अभाव नहीं होता, फिर भगवान्‌ तो प्रकृतिसे अतीत हैं, अलौकिक हैं, सब कुछ करनेमें समर्थ हैं, वे अगर सब जगह व्यापक रहते हुए एक देशमें प्रकट हो जायँ तो इसमे कहना ही क्या है ! तात्पर्य है कि अवतार लेनेपर भी भगवान्‌की सर्वव्यापकता ज्यों-की-त्यों बनी रहती है ।

प्रश्न‘मनुष्यलोकमें कर्मजन्य सिद्धि शीघ्र मिल जाती है’ (४ । १२), पर यह बात देखनेमें नहीं आती । ऐसा क्यों ?

उत्तर‒कर्मजन्य सिद्धि, कर्मोंका फल दो प्रकारका होता है‒तात्कालिक और कालान्तरिक । तात्कालिक फल शीघ्र देखनेमें आता है और कालान्तरिक फल समय पाकर देखनेमें आता है, शीघ्र देखनेमें नहीं आता । भोजन किया और भूख मिट गयी, जल पिया और प्यास मिट गयी, गरम कपड़ा ओढ़ा और जाड़ा दूर हो गया‒यह तात्कालिक फल है । इसी तरह किसीको प्रसन्न करनेके लिये उसकी स्तुति-प्रार्थना करनेसे, उसकी सेवा करनेसे वह प्रसन्न हो जाता है; ग्रहोंकी सांगोपांग विधिपूर्वक पूजा करनेसे ग्रह शान्त हो जाते हैं; महामृत्युञ्जय मन्त्रका जप करनेसे रोग दूर हो जाते है; गयामें विधिपूर्वक श्राद्ध करनेसे जीव प्रेतयोनिसे छूट जाता है और उसकी सद्‌गति हो जाती है‒यह सब कर्मोका तात्कालिक फल है । इस तात्कालिक फलको दृष्टिमें रखकर ही लोग देवताओंकी उपासना करते है । अतः ‘मनुष्यलोकमें कर्मजन्य सिद्धि शीघ्र मिल जाती है’ऐसा कहा गया है ।

प्रश्नज्ञानिजन  ब्राह्मण, चाण्डाल, गाय, हाथी, कुत्ते आदिमें समदर्शी होते हैं (५ । १८), तो फिर वर्ण, आश्रम आदिका अड़ंगा क्यों ?

उत्तरज्ञानी महापुरुषका व्यवहार तो ब्राह्मण, चाण्डाल, गाय, हाथी आदिके शरीरोंको लेकर यथायोग्य ही होता है । शरीर नित्य-निरन्तर बदलते है; अतः ऐसे परिवर्तनशील शरीरमें उनकी विषमता रहती है और रहनी ही चाहिये । कारण कि सभी प्राणियोंके साथ खान-पान आदि व्यवहारकी एकता, समानता तो कोई कर ही नहीं सकता अर्थात् सबके साथ व्यवहारमें विषमता तो रहेगी ही । ऐसी विषमतामें भी तत्त्वदर्शी पुरुष एक परमात्माको ही समानरूपसे देखते हैं । इसीलिये भगवान्‌ने तत्त्वज्ञ पुरुषोंके लिये ‘समदर्शिनः’ कहा है, न कि ‘समवर्तिनः’ । समवर्ती (समान व्यवहार करनेवाला) तो यमराजका, मौतका नाम है[*], जो कि सबको समानरूपसे मारती है ।

प्रश्र‒भगवान्‌ प्राणिमात्रके सुहृद् हैं (५ । २९), बिना किसी कारणके सबका हित चाहनेवाले हैं, तो फिर वे प्राणियोंको ऊँच-नीच गतियोंमें क्यों भेजते हैं ?

उत्तरसबके सुहृद् होनेसे ही तो भगवान्‌ प्राणियोंको उनके कर्मोके अनुसार ऊँच-नीच गतियोंमें भेजकर उनको पुण्य-पापोंसे शुद्ध करते हैं, पुण्य-पापरूप बन्धनसे ऊँचा उठाते हैं (९ । २०-२१; १६ । १९-२०) ।



[*] समवर्ती परेतराट्’ (अमरकोष १ । १ । ५८)