प्रश्न‒वर्षाके साथ तो हवनरूप यज्ञका सम्बन्ध है अर्थात् विधि-विधानसे हवनरूप यज्ञ किया
जाय तो वर्षा हो जाती है, फिर भी तीसरे अध्यायके चौदहवें श्लोकमें ‘यज्ञाद्भवति पर्जन्यः’ पदोंमें आये ‘यज्ञ’ शब्दसे हवनरूप यज्ञ न लेकर कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञ क्यों लिया
गया ? उत्तर‒वास्तवमें देखा जाय तो कर्तव्यच्युत
होनेसे, अकर्तव्य करनेसे ही वर्षा नहीं होती
और अकाल पड़ता है । कर्तव्य-कर्म करनेसे सृष्टिचक्र सुचारुरूपसे चलता है और कर्तव्य-कर्म
न करनेसे सृष्टिचक्रके चलनेमें बाधा आती है । जैसे बैलगाड़ीके चक्के ठीक रहनेसे गाड़ी
ठीक चलती है; परन्तु किसी एक भी चक्केका थोड़ा-सा
टुकड़ा टूट जाय तो उससे पूरी गाड़ीको धक्का लगता है, ऐसे ही कोई अपने कर्तव्यसे च्युत होता है तो उससे पूरी
सृष्टिको धक्का लगता है । वर्तमान समयमें मनुष्य अपने-अपने कर्तव्यका पालन नहीं कर
रहे हैं, प्रत्युत अकर्तव्यका आचरण कर रहे हैं, इसी कारण अकाल पड़ रहा है, कलह-अशान्ति बढ़ रही है । अगर मनुष्य अपने-अपने कर्तव्यका
पालन करें तो देवता भी अपने-अपने कर्तव्यका पालन करेंगे और वर्षा हो जायगी । दूसरी बात, अर्जुनका प्रश्र (३ । १-२) और भगवान्का उत्तर (३ । ७‒९)
तथा प्रकरण (३ । १०‒१३)-को देखा जाय तो कर्तव्य-कर्मका ही प्रवाह है; और आगेके श्लोकों (३ । १४‒१६)-में भी कर्तव्य-कर्मकी ही
बात है । अतः यहाँ कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञ लेना ही ठीक बैठता है । प्रश्न‒परमात्मा तो सर्वव्यापी हैं, फिर उनको (३ । १५ में) केवल यज्ञमें नित्य प्रतिष्ठित क्यों
कहा गया है ? क्या वे दूसरी जगह नित्य प्रतिष्ठित नहीं हैं ? उत्तर प्रश्न‒भगवान् कहते हैं कि मैं भी कर्तव्यका पालन करता हूँ; क्योंकि अगर मैं सावधानीपूर्वक
कर्तव्यका पालन न करूँ तो लोग भी कर्तव्यच्युत हो जायँगे (३ । २२‒२४), तो फिर वर्तमानमें लोग कर्तव्यच्युत क्यों हो रहे हैं ? उत्तर‒भगवानके वचनों और आचरणोंका असर उन्हीं
लोगोंपर पड़ता है, जो आस्तिक हैं, भगवान्पर श्रद्धा-विश्वास रखनेवाले हैं । जो भगवान्पर श्रद्धा-विश्वास नहीं रखते, उनपर भगवान्के वचनों और आचरणोंका असर नहीं पड़ता । प्रश्न‒ज्ञानवान् पुरुष अपनी प्रकृति (स्वभाव)-के अनुसार चेष्टा करता है (३ । ३३), पर
वह बँधता नहीं । अन्य प्राणी भी अपनी प्रकृतिके अनुसार ही चेष्टा करते हैं,
पर वे बँध जाते
हैं । ऐसा क्यों ?
उत्तर‒ज्ञानी महापुरुषकी प्रकृति तो राग-द्वेषरहित, शुद्ध होती है; अतः वह प्रकृतिको अपने वशमें करके ही चेष्टा करता है,
इसलिये वह कर्मोसे बँधता नहीं । परन्तु अन्य प्राणियोंकी प्रकृतिमें राग-द्वेष रहते
हैं और वे प्रकृतिके वशमें होकर राग-द्वेषपूर्वक कार्य करते हैं, इसलिये वे कर्मोंसे बँध जाते हैं । अतः मनुष्यको अपनी
प्रकृति, अपना स्वभाव शुद्ध, निर्मल बनाना चाहिये
और अपने अशुद्ध स्वभावके वशमें होकर कोई कार्य नहीं करना चाहिये । |