प्रश्न‒आत्मा नित्य है, सर्वत्र परिपूर्ण है,
स्थिर स्वभाववाला
है (२ । २४), तो फिर इसका पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाना कैसे
सम्भव है (२ । २२) ? उत्तर‒जब यह प्रकृतिके अंश शरीरको अपना मान
लेता है, उसके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब यह प्रकृतिके अंशके आने-जानेको, उसके जीने-मरनेको अपना आना-जाना, जीना-मरना मान लेता है । उसी दृष्टिसे इसका अन्य शरीरोंमें
चला जाना कहा गया है । वास्तवमें तत्त्वसे इसका आना-जाना, जीना-मरना है ही नहीं । प्रश्न‒भगवान् कहते है कि क्षत्रियके लिये युद्धके सिवाय कल्याणका दूसरा कोई साधन है
ही नहीं (२ । ३१), तो क्या लड़ाई करनेसे
ही क्षत्रियका कल्याण होगा, दूसरे किसी साधनसे कल्याण नहीं होगा ? उत्तर‒ऐसी बात नहीं है । उस समय युद्धका प्रसंग
था और अर्जुन युद्धको छोड़कर भिक्षा माँगना श्रेष्ठ समझते थे; अतः भगवान्ने कहा कि ऐसा स्वतःप्राप्त धर्मयुद्ध शूरवीर
क्षत्रियके लिये कल्याणका बहुत बढ़िया साधन है । अगर ऐसे मौकेपर शूरवीर क्षत्रिय युद्ध
नहीं करता तो उसकी अपकीर्ति होती है; वह आदरणीय, पूजनीय मनुष्योंकी दृष्टिमें लघुताको प्राप्त हो जाता है; वैरी लोग उसको न कहनेयोग्य वचन कहने लग जाते हैं (२ ।
३४‒३६) । तात्पर्य है कि अर्जुनके सामने
युद्धका प्रसंग था, इसीलिये भगवान्ने युद्धको श्रेष्ठ
साधन बताया । युद्धके सिवाय दूसरे साधनसे क्षत्रिय अपना कल्याण नहीं कर सकता‒यह बात
नहीं है; क्योंकि पहले भी बहुत-से राजालोग चौथे
आश्रममें वनमें जाकर साधन-भजन करते थे और उनका कल्याण भी हुआ है । प्रश्न‒कर्मोंका आरम्भ न करना और कर्मोंका त्याग करना‒ये दोनों बातें एक ही हुईं;
क्योंकि दोनोंमें
ही कर्मोंका अभाव है । अतः भगवान्को ‘कर्माभावसे सिद्धि नहीं होती’‒ऐसा कहना चाहिये था । फिर भी भगवान्ने (३ । ४ में) उपर्युक्त
दोनों बातें एक साथ क्यों कहीं ? उत्तर‒भगवान्ने ये दोनों बातें कर्मयोग और
ज्ञानयोगकी दृष्टिसे अलग-अलग कही हैं । कर्मयोगमें निष्कामभावसे कर्मोंको करनेसे ही
समताका पता लगता है; क्योंकि मनुष्य कर्म करेगा ही नहीं
तो ‘सिद्धि-असिद्धिमें मैं सम रहा या नहीं’‒इसका पता कैसे लगेगा ? अतः भगवान् कहते है कि कर्मोंका आरम्भ न करनेसे सिद्धिकी
प्राप्ति नहीं होती । ज्ञानयोगमें विवेकसे समताकी प्राप्ति होती है, केवल कर्मोंका त्याग करनेसे नहीं । अतः भगवान् कहते हैं
कि कर्मोका त्याग करनेमात्रसे सिद्धिकी प्राप्ति नहीं होती । तात्पर्य है कि कर्मयोग
और ज्ञानयोग‒दोनों ही मार्गोंमें कर्म करना बाधक नहीं है । प्रश्न‒कोई भी मनुष्य हरदम कर्म नहीं करता और नींद लेने,
श्वास लेने,
आँखोंकी खोलने-मीचने
आदिको भी वह ‘मैं करता हूँ’‒ऐसा नहीं मानता तो फिर तीसरे अध्यायके पाँचवें श्लोकमें
यह कैसे कहा गया कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं
रहता ?
उत्तर‒जबतक स्वयं प्रकृतिके साथ अपना
सम्बन्ध मानता है, तबतक वह कोई क्रिया करे अथवा न करे, उसमें क्रियाशीलता रहती ही है । वह क्रिया दो प्रकारकी
होती है‒क्रियाको करना और क्रियाका होना । ये दोनों विभाग प्रकृतिके सम्बन्धसे ही होते
हैं । परंतु जब प्रकृतिका सम्बन्ध नहीं रहता, तब ‘करना’ और ‘होना’ नहीं रहते, प्रत्युत ‘है’ ही रहता है । करनेमें कर्ता, होनेमें क्रिया और ‘है’ में तत्त्व रहता है । वास्तवमें कर्तृत्व रहनेपर भी ‘है’ रहता है और क्रिया रहनेपर भी ‘है’ रहता है अर्थात् कर्ता और क्रियामें तो ‘है’ का अभाव नहीं होता, पर ‘है’ में कर्ता और क्रिया‒दोनोंका अभाव होता है । |