।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    वैषाख कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७९, शनिवार

गीता-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर





गीताभ्यासेन ये जाताः साधकेष्वपि संशयाः ।

अत्र तेषां समाधानं    क्रियते  हि  समासतः ॥

प्रश्न‒कौरव-सेनाके तो शंख, भेरी, ढोल आदि कई बाजे बजे (१ । १३), पर पाण्डव सेनाके केवल शंख ही बजे (१ । १५-१९), ऐसा क्यों ?

उत्तर‒युद्धमें विपक्षकी सेनापर विशेष व्यक्तियोंका ही असर पड़ता है, सामान्य व्यक्तियोंका नहीं । कौरव-सेनाके मुख्य व्यक्ति भीष्मजीके शंख बजानेके बाद सम्पूर्ण सैनिकोंने अपने-अपने (कई प्रकारके) बाजे बजाये, जिसका पाण्डव-सेनापर कोई असर नहीं पड़ा । परन्तु पाण्डव-सेनाके मुख्य व्यक्तियोंने अपने-अपने शंख बजाये, जिनकी तुमुल ध्वनिने कौरवोंके हृदयको विदीर्ण कर दिया ।

प्रश्न‒भगवान्‌ तो जानते ही थे कि भीष्मजीने दुर्योधनको प्रसन्न करनेके लिये ही शंख बजाया है (१ । १२) यह युद्धारम्भकी घोषणा नहीं है । फिर भी भगवान्‌ने शंख क्यों बजाया (१ । १४) ?

उत्तर‒भीष्मजीका शंख बजते ही कौरवसेनाके सब बाजे एक साथ बज उठे । अतः ऐसे समयपर अगर पाण्डवसेनाके बाजे न बजते तो बुरा लगता, पाण्डवसेनाकी हार सूचित होती और व्यवहार भी उचित नहीं लगता । अतः भक्तपक्षपाती भगवान्‌ने पाण्डवसेनाके सेनापति धृष्टद्युम्नकी परवाह न करके सबसे पहले शंख बजाया ।

प्रश्न‒अर्जुनने पहले अध्यायमें धर्मकी बहुत-सी बातें कही हैं । जब वे धर्मकी इतनी बातें जानते थे, तो फिर उनको मोह क्यों हुआ ?

उत्तर‒कुटुम्बकी ममता विवेकको दबा देती है, उसकी मुख्यताको नहीं रहने देती और मनुष्यको मोह-ममतामें तल्लीन कर देती है । अर्जुनको भी कुटुम्बकी ममताके कारण मोह हो गया ।

प्रश्न‒जब अर्जुन पापके होनेमें लोभको कारण मानते थे (१ । ३८, ४५), तो फिर उन्होंने ‘मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप क्यों करता है’ (३ । ३६)‒यह प्रश्र क्यों किया ?

उत्तर‒कौटुम्बिक मोहके कारण अर्जुन (पहले अध्यायमें) युद्धसे निवृत्त होनेको धर्म और युद्धमें प्रवृत्त होनेको अधर्म मानते थे अर्थात् शरीर आदिको लेकर उनकी दृष्टि केवल भौतिक थी । अतः वे युद्धमें स्वजनोंको मारनेमें लोभको हेतु मानते थे । परंतु आगे गीताका उपदेश सुनते-सुनते उनमें अपने कल्याणकी इच्छा जाग्रत् हो गयी (३ । २) । अतः वे पूछते है कि मनुष्य न चाहता हुआ भी न करनेयोग्य काममें प्रवृत्त क्यों होता है ? तात्पर्य है कि पहले अध्यायमें तो अर्जुन मोहाविष्ट होकर कह रहे हैं और तीसरे अध्यायमें वे साधककी दृष्टिसे पूछ रहे हैं ।

प्रश्न‒शरीरी (जीवात्मा) अविनाशी है, इसका विनाश कोई कर ही नहीं सकता (२ । १७) यह न मारता है और न मारा जाता है (२ । १९) तो फिर मनुष्यको प्राणियोंकी हत्याका पाप लगना ही नहीं चाहिये ?

उत्तर‒पाप तो पिण्ड-प्राणोंका वियोग करनेका लगता है; क्योंकि प्रत्येक प्राणी पिण्ड-प्राणमें रहना चाहता है, जीना चाहता है । यद्यपि महात्मालोग जीना नहीं चाहते, फिर भी उन्हें मारनेका बड़ा भारी पाप लगता है; क्योंकि उनका जीना संसारमात्र चाहता है । उनके जीनेसे प्राणिमात्रका परम हित होता है, प्राणिमात्रको सदा रहनेवाली शान्ति मिलती है । जो वस्तुएँ प्राणियोंके लिये जितनी आवश्यक होती हैं, उनका नाश करनेका उतना ही अधिक पाप लगता है ।