सत्रहवाँ अध्याय शास्त्रविधिको जाननेवाले अथवा न जाननेवाले मनुष्योंको चाहिये
कि वे श्रद्धापूर्वक जो कुछ शुभ कार्य करते हैं, उस कार्यको भगवान्को याद करके, भगवन्नामका उच्चारण करके आरम्भ करें
। जो शास्त्रविधिको तो नहीं जानते, पर श्रद्धापूर्वक यजन-पूजन करते है, उनकी श्रद्धा (निष्ठा, स्थिति) तीन प्रकारकी होती हैं‒सात्त्विकी, राजसी और तामसी । श्रद्धाके
अनुसार ही उनके द्वारा पूजे जानेवाले देवता भी तीन तरहके होते हैं । जो यजन-पूजन नहीं करते, उनकी श्रद्धाकी पहचान आहारसे
हो जाती है, क्योंकि आहार (भोजन) तो सभी करते ही हैं । अठारहवाँ अध्याय मनुष्यमात्रके उद्धारके लिये उनकी रुचि, योग्यता और श्रद्धाके अनुसार तीन साधन
बताये गये हैं‒कर्मयोग, ज्ञानयोग और
भक्तियोग (शरणागति) । इनमेंसे किसी भी एक साधनमें मनुष्य
लग जाय तो उसका उद्धार हो जाता है । जो मनुष्य यज्ञ, तप और दान तथा नियत कर्तव्य-कर्मोंको आसक्ति और फलेच्छाका त्याग करके करता है एवं जो कुशल-अकुशल कर्मोंमें राग-द्वेष नहीं करता, वही वास्तवमें त्यागी है । नियत कर्मोंको करते हुए भी उसको पाप नहीं लगता और उसको
कहीं भी कर्म-फल प्राप्त नहीं होता ।
उसके सम्पूर्ण संशय-सन्देह मिट जाते हैं और
वह अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है । यह कर्मयोग है । जो मनुष्य सात्त्विक ज्ञान, कर्म, बुद्धि, धृति और सुखको धारण करके
कर्तृत्व-भोक्तृत्वसे रहित हो जाता
है, वह अगर सम्पूर्ण प्राणियोंको मार दे, तो भी उसको पाप नहीं लगता । अपने स्वरूपमें स्थित होनेपर उसको पराभक्तिकी प्राप्ति
हो जाती है और उससे वह परमात्म-तत्त्वको यथार्थ जानकर
उसमें प्रविष्ट हो जाता है । यह ज्ञानयोग है ।
मनुष्य भगवान्का आश्रय लेकर सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंको सदा सांगोपांग करता हुआ भी भगवत्कृपासे अविनाशी पदको प्राप्त हो जाता
है । जो मनुष्य भगवान्के परायण होकर सम्पूर्ण कर्मोंको भगवान्के अर्पण करता है, वह भगवत्कृपासे सम्पूर्ण विघ्न-बाधाओंसे तर जाता है ।
जो अपनेसहित शरीर-मन-इन्द्रियोंको भगवान्में ही लगा देता है, वह भगवान्को ही प्राप्त होता है । जो सम्पूर्ण धर्मोंके
आश्रयका त्याग करके अनन्यभावसे केवल भगवान्के ही शरण हो जाता है, उसको भगवान् सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त
कर देते हैं । यह भक्तियोग है । |