।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    वैषाख कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७९, गुरुवार

गीताके प्रत्येक अध्यायका तात्पर्य



चौदहवाँ अध्याय

सम्पूर्ण संसार त्रिगुणात्मक है । इससे अतीत होनेके लिये गुणोंको और उनकी वृत्तियोंको जरूर जानना चाहिये ।

प्रकृतिसे उत्पन्न सत्त्व, रज और तमये तीनों गुण शरीर-संसारमें आसक्ति, ममता आदि करके जीवात्माको बाँध देते हैं । सत्त्वगुण सुख और ज्ञानकी आसक्तिसे, रजोगुण कर्मोंकी आसक्तिसे और तमोगुण प्रमाद, आलस्य एवं निद्रासे मनुष्यको बन्धनमें डालता है । रजोगुण और तमोगुणको दबाकर जब सत्त्वगुण बढ़ता है, तब अन्तःकरणमें रज-तमके विरुद्ध प्रकाश हो जाता है । सत्त्वगुण और तमोगुणको दबाकर जब रजोगुण बढ़ता है, तब अन्तःकरणमें लोभ; क्रियाशीलता आदि सत्त्व-तमके विरुद्ध वृत्तियाँ बढ़ जाती हैं । सत्त्वगुण और रजोगुणको दबाकर जब तमोगुण बढ़ता है, तब अन्तःकरणमें अविवेक, कर्म करनेमेंमें अरुचि, प्रमाद, मोह आदि सत्त्व-रजके विरुद्ध वृत्तियाँ बढ़ जाती हैं । इन गुणोंकी वृत्तियोंके बढ़नेपर मरनेवाला प्राणी क्रमशः ऊँचे, मध्य और नीचेके लोकोंमें जाता है । परन्तु जो इन गुणोंके सिवाय अन्यको कर्ता नहीं मानता अर्थात् सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणोंमें ही हो रही हैं, स्वयंमे नहींऐसा अनुभव करता है, वह गुणोंसे अतीत होकर भगवद्भावको प्राप्त हो जाता है । अनन्यभक्तिसे भी मनुष्य गुणोंसे अतीत हो जाता है ।

पन्द्रहवाँ अध्याय

इस संसारका मूल आधार और इस संसारमें अत्यन्त श्रेष्ठ परमपुरुष एक परमात्मा ही हैइसको दृढ़तापूर्वक मान लेनेसे मनुष्य सर्ववित् हो जाता है, कृतकृत्य हो जाता है ।

जिससे यह संसार अनादिकालसे चला आ रहा है और जिसको प्राप्त होनेपर यह जीव फिर लौटकर संसारमें नहीं आता, उस परमात्माकी खोज करनी चाहिये । ज्ञान-नेत्रवाले साधक अपने-आपमें उस परमात्माका अनुभव कर लेते हैं । वह परमात्मा ही सूर्य, चन्द्रमा और अग्निमें तेजरूपसे रहकर संसारमें प्रकाश करता है । वही पृथ्वीमें प्रवेश करके पृथ्वीको धारण करता है । वही रसमय चन्द्रमा होकर पेड़, पौधे, लता आदिको पुष्ट करता है । वही जठराग्‍नि बनकर प्राणियोंके द्वारा खाये गये अन्नको पचाता है । वही सबके हृदयमें रहनेवाला, वेदोंको बनानेवाला, वेदोंको जाननेवाला और वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य है । वह सम्पूर्ण संसारका पालन-पोषण करता है । वह नाशवान् संसारसे अतीत और अविनाशी जीवात्मासे उत्तम है । वही लोकमें और वेदमें पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध है । उसको सर्वश्रेष्ठ मानकर अनन्यभावसे उसका भजन करना चाहिये ।

सोलहवाँ अध्याय

दुर्गुण-दुराचारोंसे ही मनुष्य चौरासी लाख योनियों एवं नरकोंमें जाता है । अतः मनुष्यको सद्गुण-सदाचारोंको धारण करके संसारके बन्धनसे, जन्म-मरणके चक्करसे रहित हो जाना चाहिये ।

जो दम्भ, दर्प, अभिमान, काम, क्रोध, लोभ आदि आसुरी-सम्पत्तिके गुणोंका त्याग करके अभय, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, दया, यज्ञ, दान, तप आदि दैवी-सम्पत्तिके गुणोंको धारण करते हैं, वे संसारके बन्धनसे रहित हो जाते हैं । परन्तु जो केवल दुर्गुण-दुराचारोंका, काम, क्रोध, लोभ, चिन्ता, अहंकार आदिका आश्रय रखते हैं, उनमें ही रचे-पचे रहते हैं, ऐसे वे आसुरी-सम्पदावाले मनुष्य चौरासी लाख योनियों एवं नरकोंमें जाते हैं ।