ग्यारहवाँ अध्याय अर्जुनने भगवान्की कृपासे जिस दिव्य विश्वरूपके दर्शन किये, उसको तो हरेक मनुष्य नहीं देख सकता; परन्तु आदि-अवताररूपसे प्रकट हुए इस संसारको श्रद्धापूर्वक
भगवान्का रूप मानकर तो हरेक मनुष्य विश्वरूपके दर्शन कर सकता है । अर्जुनने विश्वरूप दिखानेके लिये भगवान्से नम्रतापूर्वक प्रार्थना की तो भगवान्ने
दिव्यनेत्र प्रदान करके अर्जुनको अपना दिव्य विश्वरूप दिखा दिया । उसमें अर्जुनने भगवान्के
अनेक मुख, नेत्र, हाथ आदि देखे; ब्रह्मा, विष्णु और शंकरको देखा; देवताओं, गन्धर्वों, सिद्धों, सर्पों आदिको देखा । उन्होंने
विश्वरूपके सौम्य, उग्र, अत्युग्र आदि कई स्तर देखे । इस दिव्य विश्वरूपको हम
सब नहीं देख सकते, पर नेत्रोंसे दीखनेवाले इस संसारको भगवान्का स्वरूप मानकर अपना
उद्धार तो हम कर ही सकते हैं । कारण कि यह संसार भगवान्से ही प्रकट हुआ है, भगवान् ही सब कुछ बने हुए हैं । बारहवाँ अध्याय भक्त भगवान्का अत्यन्त प्यारा होता है; क्योंकि वह शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसहित अपने-आपको भगवान्के अर्पण कर देता है । जो परम श्रद्धापूर्वक अपने मनको भगवान्में लगाते हैं, वे भक्त सर्वश्रेष्ठ हैं । भगवान्के परायण हुए जो भक्त सम्पूर्ण कर्मोंको भगवानके
अर्पण करके अनन्यभावसे भगवान्की उपासना करते हैं, भगवान् स्वयं उनका संसार-सागरसे शीघ्र उद्धार करनेवाले
बन जाते हैं । जो अपने मन-बुद्धिको भगवान्में लगा
देता है, वह भगवान्में ही निवास
करता है । जिनका प्राणिमात्रके साथ मित्रता एवं करुणाका बर्ताव है, जो अहंता-ममतासे रहित हैं, जिनसे कोई भी प्राणी उद्विग्न नहीं होता तथा जो स्वयं किसी प्राणीसे उद्विग्न
नहीं होते, जो नये कर्मोंके आरम्भोंके
त्यागी हैं, जो अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंके आनेपर हर्षित एवं उद्विग्न नहीं होते, जो मान-अपमान आदिमें सम रहते हैं, जो जिस-किसी भी परिस्थितिमें निरन्तर
सन्तुष्ट रहते हैं, वे भक्त भगवान्को प्यारे
हैं । अगर मनुष्य भगवान्के ही होकर रहें, भगवान्में ही अपनापन रखें, तो सभी भगवान्के प्यारे बन सकते हैं
। तेरहवाँ अध्याय संसारमें एक परमात्मतत्त्व ही जाननेयोग्य है । उसको जरूर जान
लेना चाहिये । उसको तत्त्वसे जाननेपर जाननेवालेकी परमात्मतत्त्वके साथ अभिन्नता हो
जाती है ।
जिस परमात्माको जाननेसे अमरताकी प्राप्ति हो जाती है, उस परमात्माके हाथ, पैर, सिर, नेत्र, कान सब जगह हैं । वह सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे रहित होनेपर भी सम्पूर्ण विषयोंको प्रकाशित
करता है, सम्पूर्ण गुणोंसे रहित
होनेपर भी सम्पूर्ण गुणोंका भोक्ता है, और आसक्तिरहित होनेपर भी
सबका पालन-पोषण करता है । वह सम्पूर्ण
प्राणियोंके बाहर भी है और भीतर भी है तथा चर-अचर प्राणियोंके रूपमें भी वही है । सम्पूर्ण प्राणियोंमें विभक्त रहता हुआ भी
वह विभागरहित है । वह सम्पूर्ण ज्ञानोंका प्रकाशक है । वह सम्पूर्ण विषम प्राणियोंमें
सम रहता है, गतिशील प्राणियोंमे गतिरहित
रहता है, नष्ट होते हुए प्राणियोंमे
अविनाशी रहता है । इस तरह परमात्माको यथार्थ जान लेनेपर परमात्माको प्राप्त हो जाता
है । |