।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    ज्येष्ठ कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७९, बुधवार

गीतामें अवतारवाद


यद्यपि देवताओंके शरीर भी दिव्य कहे जाते हैं, तथापि वे भी पाञ्चभौतिक हैं । स्वर्गके देवताओंका शरीर तेजस्‌तत्त्वप्रधान, वायुदेवताका शरीर वायुतत्त्वप्रधान, वरुणदेवताका शरीर जलतत्त्वप्रधान और मनुष्योंका शरीर पृथ्वीतत्त्वप्रधान होता है; परन्तु भगवान्‌का शरीर इन तत्त्वोंसे रहित, चिन्मय होता है । देवताओंके शरीर दिव्य होते हुए भी नित्य नहीं हैं, मरनेवाले हैं । जो आजान देवता हैं, वे महाप्रलयके समय भगवान्‌में लीन हो जाते हैं; और जो पुण्यकर्मोंके फलस्वरूप स्वर्गादि लोकोंमें जाकर देवता बनते हैं, वे पुण्यकर्म क्षीण होनेपर पुनः मृत्युलोकमें आकर जन्म लेते हैं और मरते हैं । [ भगवान्‌को पाप-पुण्य नहीं लगते । उनको किसीका शाप भी नहीं लगता, पर शापकी मर्यादा रखनेके लिये वे शापको स्वीकार कर लेते हैं । ]

प्रश्न‒योगीकी और भगवान्‌की सर्वज्ञतामें क्या अन्तर है ? क्योंकि योगी भी सबकुछ जान लेता हैं और भगवान् भी ।

उत्तरजो साधन करके शक्ति प्राप्त करते हैं, उनकी सामर्थ्य, सर्वज्ञता सीमित होती है । वे किसी दूरके विषयको, किसीके मनकी बातको जानना चाहें तो जान सकते हैं, पर उसको जाननेके लिये उनको अपनी मनोवृत्ति लगानी पड़ती है । भगवान्‌की सामर्थ्य, सर्वज्ञता असीम है । भगवान्‌को किसी भूत-वर्तमान-भविष्यके विषयको जाननेके लिये अपनी मनोवृत्ति नहीं लगानी पड़ती, प्रत्युत वे उसको स्वतः-स्वाभाविक जानते हैं । उनकी सर्वज्ञता स्वतः-स्वाभाविक है ।

प्रश्न‒योगी भी चाहे जितने दिनतक अपने शरीरको रख सकता है और भगवान् भी; अतः दोनोंमें अन्तर क्या हुआ ?

उत्तरयोगी प्राणायामके द्वारा अपने शरीरको बहुत दिनोंतक रख सकता है, पर ऐसा करनेमें प्राणायामकी पराधीनता रहती है । भगवान्‌को मनुष्यरूपसे प्रकट रहनेके लिये किसीके भी पराधीन नहीं होना पड़ता । वे सदा-सर्वदा स्वाधीन रहते हैं । तात्पर्य है कि योगीकी शक्ति साधनजन्य होती है; अतः वह सीमित होती है और भगवान्‌की शक्ति स्वतःसिद्ध होती है; अतः वह असीम होती है ।

प्रश्नयोगीको भी भगवान् कहते हैं और अवतारी ईश्वरको भी भगवान् कहते हैं; अतः दोंनोंमें क्या अन्तर है ?

उत्तरषडैश्वर्य-सम्पन्न होनेसे; अणिमा, महिमा, गरिमा आदि सिद्धियोंसे युक्त होनेसे योगीको भी भगवान् कह देते हैं, पर वास्तवमें वह भगवान् नहीं हो जाता । कारण कि वह भगवान्‌की तरह स्वतन्त्रतापूर्वक सृष्टि-रचना आदि कार्य नहीं कर सकता । विशेष तपोबलसे वह विश्वामित्रकी तरह कुछ हदतक सृष्टि-रचना भी कर सकता है, पर उसकी वह शक्ति सीमित ही होती है और उसमें तपोबलकी पराधीनता रहती है ।

भगवत्ता दो तरहकी होती है‒साधन-साध्य और स्वतःसिद्ध । योग आदि साधनोंसे जो भगवत्ता (अलौकिक ऐश्वर्य आदि) आती है, वह सीमित होती है, असीम नहीं; क्योंकि वह पहले नहीं थी, प्रस्तुत साधन करनेसे बादमें आयी है । परन्तु भगवान्‌की भगवत्ता असीम, अनन्त होती है; क्योंकि वह किसी कारणसे भगवान्‌में नहीं आती, प्रत्युत स्वतःसिद्ध होती है ।

प्रश्नवेदव्यासजी आदि कारकपुरुषोंको भी भगवान् कहते हैं और अवतारी ईश्वरको भी भगवान् कहते हैं; अतः दोनोंमें क्या अन्तर है ?

उत्तरवेदव्यासजी आदि कारकपुरुष भगवान्‌के कलावतार, अंशावतार कहलाते हैं । वे भगवान्‌की इच्छासे ही यहाँ अवतार लेते हैं । अवतार लेकर वे धर्मकी स्थापना और साधु पुरुषोंकी रक्षा तो करते हैं, पर दुष्टोंका विनाश नहीं करते । कारण कि दुष्टोंके विनाशका काम भगवान्‌का ही है, कारकपुरुषोंका नहीं ।

आजकल अपनेमें कुछ विशेषता देखकर लोग अपनेको भगवान् सिद्ध करने लगते हैं और नामके साथ ‘भगवान्‌’ शब्द लगाने लगते हैं‒यह कोरा पाखण्ड ही है । अपनेको भगवान् कहकर वे अपनेको पुजवाना चाहते हैं, अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये लोगोंको ठगना चाहते हैं । मनुष्योंको ऐसे नकली भगवानोंके‌ चक्करमें पड़कर अपना पतन नहीं करना चाहिये, प्रत्युत ऐसे भगवानोंसे सदा दूर ही रहना चाहिये ।

किसी सम्प्रदायको माननेवाले मनुष्य अपनी श्रद्धा-भक्तिसे सम्प्रदायके मूल पुरुष (आचार्य)-को भी अवतारी भगवान् कह देते हैं; पर वास्तवमें वे भगवान् नहीं होते । वे आचार्य मनुष्योंको भगवान्‌की तरफ लगाते हैं, उन्मार्गसे बचाकर सन्मार्गमें लगाते हैं, इसलिये वे उस सम्प्रदायके लिये भगवान्‌से भी अधिक पूजनीय हो सकते हैं [*], पर भगवान् नहीं हो सकते ।



[*] मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा । राम ते अधिक राम कर दासा ॥

  राम सिंधु घन  सज्जन धीरा । चंदन तरु हरि  संत   समीरा ॥  

(रामचरितमानस ७ । १२० । ८-९)