यद्यपि देवताओंके शरीर भी दिव्य कहे जाते हैं,
तथापि वे भी पाञ्चभौतिक हैं । स्वर्गके देवताओंका शरीर तेजस्तत्त्वप्रधान,
वायुदेवताका शरीर वायुतत्त्वप्रधान,
वरुणदेवताका शरीर जलतत्त्वप्रधान और मनुष्योंका शरीर पृथ्वीतत्त्वप्रधान
होता है;
परन्तु भगवान्का शरीर इन तत्त्वोंसे रहित,
चिन्मय होता है । देवताओंके शरीर दिव्य होते हुए भी नित्य नहीं
हैं,
मरनेवाले हैं । जो आजान देवता हैं,
वे महाप्रलयके समय भगवान्में लीन हो जाते हैं;
और जो पुण्यकर्मोंके फलस्वरूप स्वर्गादि लोकोंमें जाकर देवता
बनते हैं,
वे पुण्यकर्म क्षीण होनेपर पुनः मृत्युलोकमें आकर जन्म लेते
हैं और मरते हैं । [ भगवान्को पाप-पुण्य नहीं लगते । उनको
किसीका शाप भी नहीं लगता, पर शापकी मर्यादा रखनेके लिये वे शापको स्वीकार कर
लेते हैं । ] प्रश्न‒योगीकी
और भगवान्की सर्वज्ञतामें क्या अन्तर है ? क्योंकि
योगी भी सबकुछ जान लेता हैं और भगवान् भी । उत्तर‒जो साधन करके शक्ति
प्राप्त करते हैं, उनकी सामर्थ्य, सर्वज्ञता सीमित होती है । वे किसी दूरके विषयको,
किसीके मनकी बातको जानना चाहें तो जान सकते हैं,
पर उसको जाननेके लिये उनको अपनी मनोवृत्ति लगानी पड़ती है । भगवान्की
सामर्थ्य, सर्वज्ञता असीम है । भगवान्को किसी भूत-वर्तमान-भविष्यके विषयको जाननेके
लिये अपनी मनोवृत्ति नहीं लगानी पड़ती, प्रत्युत वे उसको स्वतः-स्वाभाविक जानते हैं । उनकी सर्वज्ञता
स्वतः-स्वाभाविक है । प्रश्न‒योगी
भी चाहे जितने दिनतक अपने शरीरको रख सकता है और भगवान् भी; अतः
दोनोंमें अन्तर क्या हुआ ? उत्तर‒योगी प्राणायामके
द्वारा अपने शरीरको बहुत दिनोंतक रख सकता है, पर ऐसा करनेमें प्राणायामकी पराधीनता रहती है । भगवान्को मनुष्यरूपसे
प्रकट रहनेके लिये किसीके भी पराधीन नहीं होना पड़ता । वे सदा-सर्वदा स्वाधीन रहते हैं
। तात्पर्य है कि योगीकी शक्ति साधनजन्य होती है; अतः
वह सीमित होती है और भगवान्की शक्ति स्वतःसिद्ध होती है; अतः
वह असीम होती है । प्रश्न‒योगीको
भी भगवान् कहते हैं और अवतारी ईश्वरको भी भगवान् कहते हैं; अतः
दोंनोंमें क्या अन्तर है ? उत्तर‒षडैश्वर्य-सम्पन्न
होनेसे; अणिमा, महिमा, गरिमा आदि सिद्धियोंसे युक्त होनेसे योगीको भी भगवान् कह देते
हैं,
पर वास्तवमें वह भगवान् नहीं हो जाता । कारण कि वह भगवान्की तरह स्वतन्त्रतापूर्वक सृष्टि-रचना आदि कार्य नहीं
कर सकता । विशेष तपोबलसे वह विश्वामित्रकी तरह कुछ
हदतक सृष्टि-रचना भी कर सकता है, पर उसकी वह शक्ति सीमित ही होती है और उसमें तपोबलकी
पराधीनता रहती है । भगवत्ता दो तरहकी होती है‒साधन-साध्य और स्वतःसिद्ध । योग आदि
साधनोंसे जो भगवत्ता (अलौकिक ऐश्वर्य आदि) आती है, वह सीमित होती है, असीम नहीं; क्योंकि वह पहले नहीं थी, प्रस्तुत साधन करनेसे बादमें आयी है । परन्तु भगवान्की भगवत्ता असीम,
अनन्त होती है; क्योंकि
वह किसी कारणसे भगवान्में नहीं आती, प्रत्युत स्वतःसिद्ध होती है । प्रश्न‒वेदव्यासजी
आदि कारकपुरुषोंको भी भगवान् कहते हैं और अवतारी ईश्वरको भी भगवान् कहते हैं; अतः
दोनोंमें क्या अन्तर है ? उत्तर‒वेदव्यासजी
आदि कारकपुरुष भगवान्के कलावतार, अंशावतार कहलाते हैं । वे भगवान्की इच्छासे ही यहाँ अवतार लेते हैं । अवतार लेकर
वे धर्मकी स्थापना और साधु पुरुषोंकी रक्षा तो करते हैं,
पर दुष्टोंका विनाश नहीं करते । कारण कि दुष्टोंके विनाशका काम भगवान्का ही है, कारकपुरुषोंका
नहीं । आजकल अपनेमें कुछ विशेषता देखकर लोग अपनेको भगवान्
सिद्ध करने लगते हैं और नामके साथ ‘भगवान्’ शब्द लगाने लगते हैं‒यह कोरा पाखण्ड ही
है । अपनेको भगवान् कहकर वे अपनेको पुजवाना चाहते हैं, अपना
स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये लोगोंको ठगना चाहते हैं । मनुष्योंको ऐसे नकली भगवानोंके
चक्करमें पड़कर अपना पतन नहीं करना चाहिये, प्रत्युत ऐसे भगवानोंसे सदा दूर ही रहना चाहिये । किसी सम्प्रदायको माननेवाले मनुष्य अपनी श्रद्धा-भक्तिसे सम्प्रदायके
मूल पुरुष (आचार्य)-को भी अवतारी भगवान् कह देते हैं;
पर वास्तवमें वे भगवान् नहीं होते । वे आचार्य मनुष्योंको भगवान्की तरफ लगाते हैं, उन्मार्गसे
बचाकर सन्मार्गमें लगाते हैं, इसलिये वे उस सम्प्रदायके लिये भगवान्से भी अधिक
पूजनीय हो सकते हैं [*], पर भगवान् नहीं हो सकते ।
[*] मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा । राम ते अधिक राम कर
दासा ॥ राम सिंधु घन सज्जन धीरा । चंदन तरु हरि संत समीरा ॥ (रामचरितमानस
७ । १२० । ८-९) |