जो लोग यह मानते है कि भगवान् निराकार ही रहते है,
साकार होते ही नहीं; उनकी यह धारणा बिलकुल गलत है;
क्योंकि मात्र प्राणी अव्यक्त (निराकार) और व्यक्त (साकार) होते
रहते हैं । तात्पर्य है कि सम्पूर्ण प्राणी पहले अव्यक्त थे,
बीचमें व्यक्त हो जाते हैं और फिर वे अव्यक्त हो जाते हैं (२
। २८) । पृथ्वीके भी दो रूप हैं‒निराकार और साकार । पृथ्वी तन्मात्रारूपसे निराकार
और स्थूलरूपसे साकार रहती है । जल भी परमाणुरूपसे निराकार और भाप,
बादल, ओले आदिके रूपसे साकार रहता है । वायु निःस्पन्दरूपसे निराकार
और स्पन्दनरूपसे साकार रहती है । अग्नि दियासलाई, काष्ठ, पत्थर आदिमें निराकाररूपसे रहती है और घर्षण आदि साधनोंसे साकार
हो जाती है । इस तरह मात्र सृष्टि निराकार-साकार होती रहती है । सृष्टि प्रलय-महाप्रलयके
समय निराकार और सर्ग-महासर्गके समय साकार रहती है । जब प्राणी
भी निराकार-साकार हो सकते हैं, पृथ्वी, जल आदि महाभूत भी निराकार-साकार हो सकते हैं,
सृष्टि भी निराकार-साकार हो सकती है, तो क्या भगवान् निराकार-साकार नहीं हो सकते ? उनके
निराकार-साकार होनेमें क्या बाधा है ?
इसलिये गीतामें भगवान्ने कहा है कि यह सब संसार मेरे अव्यक्त
स्वरूपसे व्याप्त है‒‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना’(९ । ४) यहाँ भगवान्ने अपनेको ‘मया’ पदसे व्यक्त (साकार) और ‘अव्यक्तमूर्तिना’
पदसे अव्यक्त (निराकार) बताया है । सातवें अध्यायके चौबीसवें
श्लोकमें भगवान्ने बताया है कि जो मेरेको अव्यक्त (निराकार) ही मानते हैं,
व्यक्त (साकार) नहीं, वे बुद्धिहीन हैं; और जो मेरेको व्यक्त (साकार) ही मानते हैं,
अव्यक्त (निराकार) नहीं, वे भी बुद्धिहीन हैं;
क्योंकि वे दोनों ही मेरे परमभावको नहीं जानते । प्रश्न‒अवतारी
भगवान्का शरीर कैसा होता है ? उत्तर‒हमलोगोंका जन्म
कर्मजन्य होता है, पर भगवान्का जन्म (अवतार) कर्मजन्य नहीं होता । अतः हमलोगोंके
शरीर जैसे माता-पिताके रज-वीर्यसे पैदा होते हैं, वैसे भगवान्का शरीर पैदा नहीं होता । वे जन्मकी लीला तो हमारी
तरह ही करते है, पर वास्तवमें वे उत्पन्न नहीं होते, प्रत्युत प्रकट होते हैं‒‘सम्भवाम्यात्ममायया’
(४ । ६) । हमारी आयु तो कर्मोंके अनुसार सीमित होती है,
पर भगवान्की आयु सीमित नहीं होती । वे अपने इच्छानुसार जितने
दिन प्रकट रहना चाहें, उतने दिन रह सकते हैं । हम लोगोंको तो अज्ञताके कारण कर्मफलके
रूपमें आयी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंका भोग करना पड़ता है,
पर भगवान्को अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंका भोग नहीं करना
पड़ता,
वे सुखी-दुःखी नहीं होते ।
हमलोगोंका शरीर पाञ्चभौतिक होता है,
पर भगवान्का अवतारी शरीर पाञ्चभौतिक नहीं होता,
प्रत्युत सच्चिदानन्दमय होता है‒‘सच्चित्सुखैकवपुषः
पुरुषोत्तमस्य’; ‘चिदानंदमय देह तुम्हारी’ (मानस
२ । १२७।३) । ‘सत्’ से भगवान्का अवतारी शरीर बनता है,
‘चित्’ से उनके शरीरमें प्रकाश होता है और ‘आनन्द’
से उनके शरीरमें आकर्षण होता है । वह
शरीर भगवान्को माननेवाले, न माननेवाले आदि सभीको स्वतः प्रिय लगता है । अतः भगवान्का शरीर हमलोगोंके शरीरकी
तरह हड्डी, मांस, रुधिर आदिका नहीं होता । परन्तु अवतारकी लीलाके समय
वे अपने चिन्मय शरीरको पाञ्चभौतिक शरीरकी तरह दिखा देते हैं । भक्तोंके भावोंके अनुसार भगवान्को
भूख भी लगती है, प्यास भी लगती है,
नींद भी आती है,
सरदी-गरमी भी लगती है और भय भी लगता है ! |