।। श्रीहरिः ।।



  आजकी शुभ तिथि–
    ज्येष्ठ कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७९, शुक्रवार

गीतामें मूर्तिपूजा


भगवान्‌ सब जगह परिपूर्ण हैंऐसा प्रायः सभी आस्तिक मानते हैं; परन्तु वास्तवमें ऐसा मानना उन्हींका है, जिन्होंने मूर्ति, वेद, सूर्य, पीपल, तुलसी, गाय आदिमें भगवान्‌को मानकर उनका पूजन शुरू कर दिया है । कारण कि जो मूर्ति, वेद, सूर्य आदिमें भगवान्‌को मानते हैं, वे स्वतः सब जगह, सब प्राणियोंमें भगवान्‌को मानने लग जायँगे । जो केवल मूर्ति आदिमें ही भगवान्‌को मानते हैं, उनको ‘प्राकृत (आरम्भिक) भक्त’ कहा गया है[*] क्योंकि उन्होंने एक जगह भगवान्‌का पूजन शुरू कर दिया; अतः वे भगवान्‌के सम्मुख हो गये । परन्तु जो केवल ‘भगवान्‌ सब जगह हैं’ऐसा कहते हैं, पर उनका कहीं भी आदरभाव, पूज्यभाव, श्रेष्ठ भाव नहीं है, उनको भक्त नहीं कहा गया है; क्योंकि वे ‘भगवान्‌ सब जगह हैं’ऐसा केवल कहते हैं, मानते नहीं; अतः वे भगवान्‌के सम्मुख नहीं हुए ।

मूर्तिमें भगवान्‌का पूजन श्रद्धाका विषय है, तर्कका विषय नहीं । जिनमें श्रद्धा है, उनके सामने भगवान्‌का महत्त्व प्रकट हो जाते है । उनके द्वारा की गयी पूजाको भगवान्‌ ग्रहण करते हैं । उनके हाथसे भगवान्‌ प्रसाद ग्रहण करते हैं । जैसे करमाबाईसे भगवान्‌ने खिचड़ी खायी, धन्ना भक्तसे भगवान्‌ने टिक्कड़ खाये, मीराबाईसे भगवान्‌ने दूध पिया आदि-आदि । तात्पर्य है कि श्रद्धा-भक्तिसे भगवान्‌ मूर्तिमें प्रकट हो जाते हैं ।

प्रश्नभक्तलोग भगवान्‌को भोग लगाते हैं तो भगवान्‌ उसको ग्रहण करते हैंइसका क्या पता ?

उत्तरभगवान्‌के दरबारमें वस्तुकी प्रधानता नहीं है, प्रत्युत भावकी प्रधानता है । भावके कारण ही भगवान्‌ भक्तके द्वारा अर्पित वस्तुओं और क्रियाओंको ग्रहण कर लेते हैं । भक्तका भाव भगवान्‌को भोजन करानेका होता है तो भगवान्‌को भूख लग जाती है और वे प्रकट होकर भोजन कर लेते हैं । भक्तके भावके कारण भगवान्‌ जिस वस्तुको ग्रहण करते हैं, वह वस्तु नाशवान नहीं रहती, प्रत्युत दिव्य, चिन्मय हो जाती है । अगर वैसा भाव न हो, भावमें कमी हो, तो भी भगवान्‌ भक्तके द्वारा भोजन अर्पण करनेमात्रसे सन्तुष्ट हो जाते हैं । भगवान्‌के सन्तुष्ट होनेमें वस्तु और क्रियाकी प्रधानता नहीं है, प्रत्युत भावकी ही प्रधानता है । सन्तोंने कहा है

भाव भगतकी राबड़ी,   मीठी लागे ‘वीर’ ।

बिना भाव ‘कालू’ कहे, कड़वी लागे खीर ॥

हमें एक सज्जन मिले थे । उनकी एक सन्तपर बड़ी श्रद्धा थी और वे उनकी सेवा किया करते थे । वे कहते थे कि जब महाराजको प्यास लगती तो मेरे मनमें आती कि महाराजको प्यास लगी है; अतः मैं जल ले जाता और वे पी लेते । ऐसे ही जो शुद्ध पतिव्रता है, उसको पतिकी भूख-प्यासका पता लग जाता है तथा पतिकी रुचि भोजनके किस पदार्थमें हैइसका भी पता लग जाता है । भोजन सामने आनेपर पति भी कह देता है कि आज मेरे मनमें इसी भोजनकी रुचि थी । इसी तरह जिसके मनमें भगवान्‌को भोग लगानेका भाव होता है, उसको भगवान्‌की रुचिका, भूख-प्यासका पता लग जाता है ।



[*] अचार्यामेव   हरये    पूजां   यः   श्रद्धयेहते ।

   न तद्भक्तेषु चान्येषु  स भक्तः प्राकृतः स्मृतः ॥

(श्रीमद्भागवत ११/२/४७)