षट्स्वेव
दर्शनेष्वीशो न तथापेक्षितो
मतः ।
कल्याणार्थं तु जीवानां
गीयते गीतयेश्वरः ॥ अन्य दर्शनोंकी अपेक्षा गीतामें ईश्वरवाद विशेषरूपसे आया है
। न्याय,
वैशेषिक, योग, सांख्य, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा‒ये छहों दर्शन केवल जीवके कल्याणके
लिये ही है; परन्तु इनमें ईश्वरका वर्णन मुख्यतासे नहीं हुआ है । इनमेंसे ‘न्यायदर्शन’ में
‘जो कुछ होता है, वह सब ईश्वरकी इच्छासे ही होता है’‒इस तरह ईश्वरका आदर तो किया गया है,
पर मुक्तिमें वह ईश्वरकी आवश्यकता नहीं मानता । वह इक्कीस प्रकारके
दुःखोंके ध्वंसको ही मुक्ति बताता है । ‘वैशेषिकदर्शन’ में भी जीवके कल्याणके लिये
ईश्वरकी आवश्यकता न बताकर आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक‒इन तीनों तापोंका नाश बताया गया है । ‘योगदर्शन’ में मुख्यरूपसे
चित्तवृत्तियोंके निरोधकी बात आयी है । चित्तवृत्तियोंके निरोधसे स्वरूपमें स्थिति
हो जाती है । हाँ,
चित्तवृत्ति-निरोधमें ईश्वरप्रणिधान (शरणागति)-को भी एक उपाय
बताया गया है, पर इस उपायकी प्रधानता नहीं है । ‘सांख्यदर्शन’
और ‘पूर्वमीमांसादर्शन’
तो जीवके कल्याणके लिये ईश्वरकी कोई आवश्यकता ही नहीं समझते
। ‘उत्तरमीमांसा (वेदान्तदर्शन)-में ईश्वरकी बात विशेषरूपसे नहीं आयी है,
प्रत्युत जीव और ब्रह्मकी एकताकी बात ही विशेषरूपसे आयी है ।
वैष्णवाचायोंने भी ईश्वरकी विशेषता तो बतायी है, पर
जैसी गीताने बतायी है, वैसी नहीं बतायी । गीतामें ईश्वर-भक्तिकी बात मुख्यरूपसे आयी
है । अर्जुन जबतक भगवान्के शरण नहीं हुए,
तबतक भगवान्ने उपदेश नहीं दिया । जब अर्जुनने भगवान्के शरण
होकर अपने कल्याणकी बात पूछी, तब भगवान्ने गीताका उपदेश आरम्भ किया । उपदेशके अन्तमें भी
भगवान्ने ‘मामेकं शरणं व्रज’ (१८ ।
६६) कहकर अपनी शरणागतिको अत्यन्त
गोपनीय और श्रेष्ठ बताया और अर्जुनने भी ‘करिष्ये वचनं तव’ (१८ ।
७३) कहकर पूर्ण शरणागतिको स्वीकार
किया । गीतोक्त कर्मयोगमें भी ईश्वरकी आज्ञारूपसे ईश्वरकी मुख्यता आयी
है;
जैसे ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा
फलेषु कदाचन’ (२ । ४७); ‘योगस्थः कुरु कर्माणि’ (२ ।
४८); ‘नियतं
कुरु कर्म त्वम्’ (३ । ८); ‘कुरु कर्मैव तस्मात्त्वम्’ (४ । १५) आदि-आदि । ऐसे ही गीतोक्त ज्ञानयोगमें भी ईश्वरकी अव्यभिचारिणी
भक्तिको ज्ञान-प्राप्तिका साधन बताया गया है (१३ । १०; १४ ।
२६) ।
गीताके मूल पाठका अध्ययन करनेसे ही पता चलता है कि जीवके कल्याणके लिये ईश्वरकी अत्यधिक आवश्यकता है ! |