प्रश्न‒ईश्वरको
हम क्यों मानें ? उत्तर‒ईश्वर है, इसलिये
मानें । प्रश्न‒ईश्वर
है या नहीं‒इसका क्या पता ? उत्तर‒संसारमें जो भी
वस्तु दीखती है, उसका कोई-न-कोई निर्माणकर्ता होता है; क्योंकि निर्माणकर्ताके बिना कोई भी वस्तु निर्मित नहीं होती
। ऐसे ही समुद्र, पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य, वायु, तारे आदि हमें दीखते हैं तो इनका भी कोई रचयिता जरूर होना
चाहिये । इनका रचयिता हमलोगोंकी तरह कोई सामान्य मनुष्य नहीं हो सकता,
जो इनको बना सके । इनका निर्माता,
रचयिता सर्वसमर्थ ईश्वर ही हो सकता है । दूसरी बात,
समुद्र अपनी मर्यादामें रहता है,
चन्द्र-सूर्य नियमित समयपर उदित और अस्त होते हैं आदि-आदि,
तो इनका नियमन, संचालन करनेवाला कोई होना चाहिये । इनका नियामक सर्वसमर्थ ईश्वर
ही हो सकता है । प्रश्न‒समुद्र, पृथ्वी, चन्द्र
आदिकी रचना और नियमन तो प्रकृति करती है । सब कुछ प्रकृतिसे ही होता है । अतः ईश्वरको
ही रचयिता और नियामक क्यों मानें ? उत्तर‒हम आपसे पूछते
है कि प्रकृति जड़ है या चेतन अर्थात् उसमें ज्ञान है या नहीं ?
अगर आप प्रकृतिको ज्ञानवाली मानते है तो हम उसीको ईश्वर कहते
हैं । हमारे शास्त्रोंमें ईश्वररूपसे शक्तिका भी वर्णन है । अतः आपकी और हमारी मान्यतामें
शब्दमात्रका ही भेद हुआ,
तत्त्वमें कोई भेद नहीं हुआ । अगर आप मानते हैं कि प्रकृति जड़
है तो जड़ प्रकृतिके द्वारा ज्ञानपूर्वक क्रिया नहीं हो सकती । प्राणियोंकी रचना करना, उनके शुभाशुभ कर्मोंका फल देना आदि क्रियाएँ जड़ प्रकृतिके
द्वारा नहीं हो सकतीं; क्योंकि ज्ञानपूर्वक क्रियाके बिना संसारके जीवोंकी
व्यवस्था नहीं हो सकती । जड़ प्रकृतिमें परिवर्तन जरूर होता है, पर
उसमें ज्ञानपूर्वक क्रिया करनेकी शक्ति नहीं है । इसलिये ‘ईश्वर है’‒ऐसा हमें मानना
ही पड़ेगा । एक पक्ष कहता है कि ईश्वर नहीं है और दूसरा पक्ष
कहता है कि ईश्वर है । अगर ‘ईश्वर नहीं है’‒यह बात ही सच्ची निकली तो ईश्वरको न माननेवाले
और ईश्वरको माननेवाले‒दोनों बराबर ही रहेंगे अर्थात् ईश्वरको माननेवालेकी कोई हानि
नहीं होगी । परन्तु ‘ईश्वर है’‒यह बात ही सच्ची निकली तो ईश्वरको माननेवालेको तो ईश्वरकी
प्राप्ति हो जायगी, पर ईश्वरको न माननेवाला सर्वथा रीता रह जायगा । अतः
‘ईश्वर है’‒यह मानना ही सबके लिये ठीक है । परन्तु केवल ईश्वरको माननेमें ही सन्तोष
नहीं करना चाहिये, प्रत्युत
उसको तो प्राप्त ही कर लेना चाहिये; क्योंकि ईश्वरको प्राप्त करनेकी सामर्थ्य मनुष्यमात्रमें
है । किसी वस्तुकी प्राप्ति होनेपर ही उसका निषेध किया जाता है‒‘प्राप्तौ सत्यां निषेधः’ । यह कोई नहीं कहता कि ‘घोड़ीका
अण्डा नहीं होता’; क्योंकि जो होता ही नहीं,
उसका निषेध करना बनता ही नहीं । ऐसे ही अगर ईश्वर है ही नहीं तो फिर ‘ईश्वर नहीं है’‒ऐसा कहना बनता ही
नहीं । ऐसा कहना तभी बनता है, जब ईश्वर हो । अतः ‘ईश्वर नहीं है’‒ऐसा कहनेसे भी
ईश्वरका होना सिद्ध होता है । |